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जगप्रसाद तो सुंदरी की यह हालत देख कर वहीं गश खा कर गिर पड़ा. एक बुजुर्ग ने अपनी पगड़ी खोल कर सुंदरी की आबरू को ढंका. गांव वालों ने सुंदरी के हाथपैर खोले, उस के मुंह में ठुंसा दुपट्टा निकाला और उसे लेकर जल्दी से गांव पहुंचे. वहां गांव का डाक्टर बापबेटी को होश में लाने में कामयाब रहा.

यह खबर गांव में आग की तरह फैल गई. हर कोई खबर सुन कर जगप्रसाद के घर की तरफ भागा जा रहा था. बलात्कारियों के परिवार वालों को खबर लगी तो वे गांव वालों के आक्रोश से बचने के लिए गांव छोड़ कर भाग खड़े हुए.

उधर ग्राम प्रधान मखना ने मामले की खबर पुलिस को कर दी थी. पुलिस ने आते ही अपनी काररवाई शुरू कर दी. बलात्कारियों के घर तोड़फोड़ की और सुंदरी को मैडिकल जांच के लिए बिजनौर के जिला अस्पताल भेजा.

जल्दी ही बलात्कारी गिरफ्तार कर लिए गए और सलाखों के पीछे भेज दिए गए. कानून अपना काम करता रहा लेकिन एक मुकदमा गांव में भी चलता रहा. इस मुकदमे की अदालत गांव थी. इस में वकील, जज और गवाह सब गांव वाले थे. अपराधी भी गांव की ही एक लड़की थी और वह थी सुंदरी. वह बिना किसी अपराध की अपराधी थी.

यह अपराध भी ऐसा था जो उस ने कभी किया ही नहीं था. लेकिन समाज के ठेकेदार उसे गुनहगार बनाने पर तुले हुए थे. समाज के ठेकेदारों ने सुंदरी पर अपराध की जो धाराएं लगाईं, वे न तो कानून की किताबों में कहीं मिलती हैं और न सभ्य समाज में. समाज के ठेकेदारों ने उस पर अपनी धाराएं लगाईं- बलात्कार की शिकार, पापिन, अछूत और अपशकुनी.

गांव वालों ने अपनी बेटियों को सुंदरी से दूर रहने की हिदायत दी. गांव के लड़के सुंदरी को छेड़ने के बजाय उसे ‘बेचारी’ कह कर पुकारने लगे थे. गांव की औरतों ने उसे ‘अछूत’ का दरजा दे दिया था. वह उन के लिए अपशकुनी बन गई थी. उस की परछाई से भी उन के सतीत्व के भंग होने का डर था. यहां तक कि जिन औरतों ने गांव में कईकई खसम पाल रखे थे, वे औरतें भी उस अपशकुनी से दूर ही रहती थीं क्योंकि सब से ज्यादा पतिव्रता का ढोंग ये ही औरतें करती थीं।

जगप्रसाद का घर गांव में अलगथलग पड़ चुका था. इस हादसे के बाद सुंदरी गुमसुम सी रहने लगी थी. गांव वालों के उपेक्षित व्यवहार से उसे ऐसा आभास होता था कि वह न जाने कितनी बड़ी अपराधी है. इस अपराधबोध ने सुंदरी को अंदर तक आहत कर दिया था. यह वह सजा थी जो सुंदरी को किसी कानूनी अदालत ने नहीं बल्कि सामाजिक अदालत ने बिना मुकदमे और बिना बहस के सुनाई थी. सुंदरी को समाज का यह असामान्य बहिष्कार बुरी तरह से अखर रहा था. उसे समझ में ही नहीं आ रहा था कि आखिर उस की गलती क्या है?

कुछ महीनों के बाद खबर मिली कि चारों बलात्कारी नकटू, शाकिब, कलवा और टिपलू जमानत पर जेल से बाहर आ गए हैं. यह सुनते ही सुंदरी के अंदर आक्रोश का लावा उबलने लगा. वह यह सोच कर बौखला गई कि आखिर ऐसे दरिंदों को अदालत कैसे जमानत पर छोड़ सकती है? इस से उस की मानसिक स्थिति विचलित होने लगी.

अब सुंदरी बातबात पर गुस्सा करती. कोई उस के खिलाफ कुछ कहता तो वह उस से भिड़ जाती, कोई उसे घूरता तो उसे गालियां बकने लगती. कई बार गुस्से में वह इतनी हिंसक हो जाती कि किसी पर कुछ भी उठा कर फेंक देती. वह इतनी हिंसक हो गई कि एक दिन गांव वालों को जगप्रसाद से कहना पड़ा, “जगप्रसाद, या तो सुंदरी को घर में बांध कर रखो या फिर इस का किसी पागलखाने भेज कर इस का इलाज करवाओ. नहीं तो तुम्हारी बेटी किसी दिन किसी का सिर फोड़ देगी, फिर उस का परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहना.”

जब जगप्रसाद ने सुंदरी को समझाने की कोशिश की तो वह अपने बाप से ही उलझ बैठी. बापबेटी में तकरार इतनी बढ़ गई कि सुंदरी ने घर छोड़ने का ही पक्का इरादा कर लिया.

पास के गांव में ही एक ईंटभट्ठा था. सुंदरी ने सुन रखा था कि वहां पर बहुत सी महिला मजदूर काम करती हैं उस ने वहीं जाने का निर्णय किया. वहां काम करने वाली महिलाओं को रहने के लिए झोंपड़ी भी मिलती थी। अपने परिवार के विरुद्ध जा कर सुंदरी उसी भट्ठे पर काम करने लगी. वहीं अन्य महिलाओं की तरह उसे रहने का ठिकाना भी मिल गया.

 

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