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कुछ देर बाद ही अमर और रोमा अपनी किताबें ले कर स्टडी टेबल पर आ गए. रमेश मजबूरी में पढ़ाने बैठ गया. थोड़ी ही देर में वह ऊब गया और उठ खड़ा हुआ. बोला,"अपनेआप पढ़ो. स्कूल और ट्यूशन के समय सोते रहते हो क्या?" बच्चे आवाक से देखते रह गए, रमेश कुरसी को धक्का दे उठ खड़ा हुआ. रमेश के मन में दयानंद महाराज से दीक्षा लेने का विचार उठ रहा था.

 

अगले दिन रविवार था. दुकान की छुट्टी थी. उस ने सुलेखा से दुकान के किसी जरूरी काम का बहाना बना कर सुभाष से स्वामी दयानंद के आश्रम का पताठिकाना ले कर ऋषिकेश जा पहुंचा. आश्रम में आज्ञा ले कर जब वह अंदर पहुंचा तो महाराजजी ध्यानावस्था में थे. कुछ और लोग भी प्रतीक्षा में बैठे थे. जैसे ही महात्माजी ने आखें खोलीं सभी ने प्रणाम किया. उन्होंने सब को आशीर्वाद दे कर प्रवचन देने शुरू किए. प्रवचन समाप्त होने के बाद सभी लोग चले गए.

 

रमेश उठ कर गुरु महाराज के चरणों में जा कर बैठ गया और बोला,"गुरुदेव, मेरा मन बहुत बेचैन है. आप की शरण में आया हूं. मुझे अपना शिष्य बना कर सद्मार्ग  दिखाएं." गुरुदेव बोले,"तुम सांसारिक मनुष्यों के लिए इस रास्ते पर चलना तलवार की धार पर चलने के समान है. तुम्हें घरपरिवार, धनवैभव सब का मोह त्यागना होगा. तुम इस के लिए तैयार हो?" रमेश बोला,"आप के प्रवचनों ने मेरे ज्ञानचक्षु खोल दिए हैं, मैं परिवार में रहते हुए ही आप के बताए मार्ग पर चलूंगा. आप मुझे दीक्षा दीजिए."

 

स्वामीजी ने जवाब दिया,"वत्स, लगभग 6 महीनें तक अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण करने का अभ्यास करो. फिर मेरे पास आना. इस बीच  देहरादून में जो मेरा आश्रम बन रहा है वहां जा कर तुम श्रम अथवा धन से सहयोग दे कर पुण्य कमा सकते हो," यह सुन कर रमेश ने गुरुजी के सामने शीश झुकाते हुए कहा,"जो आज्ञा गुरु महाराज..." इतना कह कर वह देहरादून लौट आया. घर पहुंच कर उस ने सुलेखा से बात किए बिना थकावट का बहाना बना कर सो गया. सुलेखा हैरान रह गई.उसे रमेश का रवैया बदलाबदला सा महसूस हुआ. घरगृहस्थी के प्रति, बच्चों के हर बात के प्रति सजग रहने वाला रमेश इतना लापरवाह कैसे हो गया? इसी उधेड़बुन में उलझी सुलेखा सो गई.

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