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सुलेखा वाशिंग मशीन में कपड़े डाल कर जल्दी से किचन में आई. 2 बज चुके थे. उस के पति रमेश रोज  दुकान से 2 बजे खाना खाने घर पर आते थे. घर से थोड़ी दूर तिलक नगर  में उस का एक जनरल स्टोर था. बीच बाजार में स्थित होने के कारण अच्छी  आमदनी हो जाती थी .सुलेखा जल्दीजल्दी खाना बना रही थी. रोज तो इस समय तक खाना तैयार हो जाता था पर आज कामवाली बाई कमला ने बिना बताए छुट्टी कर ली तो घर के कामकाज का सारा टाइमटेबल गड़बड़ा गया था.

 

बच्चों का भी स्कूल से वापस आने का समय हो गया था. बेटा अमर    12वीं कक्षा में था और बेटी रोमा 10वीं में थी. दोनों सैंट थौमस स्कूल में पढ़ते थे. थोड़ी देर में ही घर में सब पहुंच गए.सुलेखा ने जल्दी से खाना डाइनिंग टेबल पर लगा दिया. सभी को जोर से भूख लगी थी इसलिए बिना कुछ नखरा किए सभी बड़े आनंद से खाना खाने लगे. सुलेखा को यह देख मन ही मन बड़ी खुशी मिलती. खाने के बाद बच्चे अपने कमरों में चले गए. रमेश भी दुकान पर लौटने की तैयारी करने लगा. अचानक उसे कुछ याद आया. सुलेखा किचन में साफसफाई कर रही थी. उस ने ऊंचे स्वर में  सुलेखा को पुकारा. सुलेखा सब काम छोड़ जल्दी से भागी चली आई. रमेश बोला,”आज शाम को मेरे दोस्त  सुभाष के घर ऋषिकेश से महाराज दयानंदजी पधार रहे हैं. बड़े सिद्ध महात्मा और ज्ञानी हैं. हमें भी उन के दर्शन करने के लिए जाना चाहिए. आज शाम मैं दुकान से जल्दी आ जाऊंगा. तुम शाम को तैयार रहना, उन के दर्शन के लिए चलेंगे,” यह सुन सुलेखा सोच में पड़ गई.

 

दोनों बच्चों के बोर्ड परीक्षा के कुछ ही दिन शेष रह गए हैं. उन केे खानेपीने का ध्यान रखना, ट्यूशन के लिए भेजना आदि सभी बातों की जिम्मेदारी उस की ही थी. ऐसे में किसी महात्माजी के दर्शन करने जाने का प्रस्ताव उसे पसंद नहीं आया. उस ने व्यस्तता का बहाना बना कर इनकार कर दिया. अब रमेश ने अकेले ही जाने का फैसला किया. शाम के 6 बजे ही उस ने अपना जनरल स्टोर बंद कर दिया और  महाराज दयानंद के दर्शन करने जा पहुंचा. सुभाष का रैडीमेड गारमैंट की दुकान थी. बिजनैस अच्छा चल रहा था. सुभाष के घर पहुंच कर वह हैरान रह गया. हौल लोगों से खचाखच भरा हुआ था. सामने ऊंचे गद्दे पर दयानंद महाराज बैठे थे. सब लोग महात्माजी को दंडवत प्रणाम कर रहे थे. रमेश भी प्रणाम कर बैठ गया. स्थूलकाय, गौरवर्ण वाले स्वामी की आंखों में कुछ ऐसा था जो बरबस किसी को भी अपने मोहजाल में खींच सकता था. थोड़ी ही देर बाद स्वामीजी ने प्रवचन देना आंरभ कर दिया. बादलों के गर्जन जैसी आवाज में,”आत्मा और परमात्मा, जगत मिथ्या है, मोहजाल की बेड़ियों को तोड़ कर गुरुदेव की    शरण में स्वयं को समर्पित कर दो,” ऐसेऐसे प्रवचनों को सब लोग मंत्रमुग्ध हो कर सुन रहे थे.

 

प्रवचन समाप्त होने के बाद धनाढ्य लोगों के द्वारा बाहर बगीचे में एक      विशाल भंडारे का आयोजन किया गया था. आखिर में यह घोषणा की गई कि इसी शहर में दयानंद महाराज अपने भक्तों की सुविधा के लिए एक  आश्रम बनवाना चाह रहे हैं ताकि  समयसमय पर यहां आकर वे सब को अपने प्रवचनों के द्वारा मार्गदर्शन करते रहें. इस घोषणा के बाद लोग आश्रम निर्माण हेतु बढ़चढ़ कर दान करने लगे. माइक पर दान देने वालों के नाम और धनराशि की घोषणा भी की जा रही थी. यह सब देख कर रमेश हैरान रह गया. उस के मित्र ने भी दिल खोल कर दान दिया. रमेश के मन में उथलपुथल मची थी. उस की जेब में ₹200 ही थे. संकोचवश उस ने वे रूपए नहीं दिए. वापस लौटते हुए दोनों दोस्तों में दयानंद महाराज के प्रवचनों के बारे में ही चर्चा होती रही. सुभाष बहुत पहले से ही पूजापाठ, साधुमहात्माओं की संगत में जाया करता था. उस ने रमेश को समझाया कि जीवन केवल घरसंसार तक ही सीमित नहीं होना    चाहिए. अपना भविष्य, अगले जन्म के बारे में भी सोचना जरूरी है. आज का धर्म कर्म के कारण ही अगला जन्म सुखमय बनेगा. इन सब बातों को सुन कर रमेश दूसरी दुनिया में ही खो जाता.

 

वह अनमना सा घर आया. सब डिनर के लिए उस की प्रतीक्षा कर रहे थे. वह तो भंडारे में भोजन कर आया था. उस ने सुलेखा को बताया कि वह तो भंडारे में खा कर आ गया. खाना खा कर बच्चे पढ़ाई करने लगे और सुलेखा किचन में चली गई. रमेश कपड़े बदल कर लेट गया. आज प्रवचन सुन और सुभाष की बातें सुन कर उस के दिल में अनोखा सा अंतर्द्वंद्व चल रहा था. वह सोचने लगा कि क्या उस की जिंदगी केवल पत्नी, बच्चों और दुकान तक ही सिमट कर रह गई है? इस दुनिया से बाहर भी एक आध्यात्मिक दुनिया है, जो हमें ईश्वर और धर्मकर्म की ओर ले जाती है. गुरुदेव के अनुसार, यह मोहमाया तो एक दलदल है जिस में इंसान धंसता ही जाता है और जो अंत में नरक के द्वार पर पहुंच जाता है. अचानक उस ने मन ही मन एक संकल्प ले लिया कि वह भी इन मोहममता की बेड़ियों को काट कर सद्गुरु की शरण में चला जाएगा. पत्नी और बच्चे केवल अपनी जरूरतों और इच्छाओं की पूर्ति के कारण मुझ से जुड़े हैं. आज मैं गरीब हो जाऊं तो यह सब मुझ से ऐसे ही प्रेम और लगाव नहीं रखेंगे.

 

अगले दिन सुबह वह जल्दी उठ कर नहाने चला गया. सुलेखा चाय ले कर जब कमरे में आई तो हैरान रह गई. रमेश सुबह चाय लेता था पर आज वह सुबहसुबह ही नहा रहा था. बच्चे भी उठ गए. वे दोनों अपने मनपसंद नाश्ते की फरमाइश कर रहे थे. आज रमेश चाय के लिए शोर मचाए बिना ही शांत भाव से तैयार हो कर नाश्ते के लिए आ गया. सुलेखा और बच्चों को रमेश की चुप्पी से हैरानगी हो रही थी. नाश्ता करतेकरते अचानक रमेश सुलेखा से मुखातिब हो कर बोला,”कल तुम ने स्वामी दयानंदजी के सत्संग में न जा कर बहुत बङी भूल कर दी. मैं तो उन के प्रवचनों से बहुत प्रभावित हुआ. सच में हम कुएं के मेढक हैं. अपने घरपरिवार, दुकान बस इस के अतिरिक्त कुछ नहीं सोचते हैं,” यह सुन सुलेखा हैरान हो गई.

 

वह बोली,”यह ठीक है पर पहले अपने जीवन के मुख्य कर्तव्य को निभा लें. दोनों बच्चों का बोर्ड परीक्षा नजदीक है. अच्छा है कि तुम बच्चों की परीक्षा के बारे में चिंता करो नकि तथाकथित बाबाओं के चक्कर में पड़ कर समय खराब करो,” यह सुन कर रमेश आगबबूला हो कर बोला,”एक महान महात्माजी का तुम अपमान कर रही हो, यह तुम्हें शोभा नहीं देता.” बात बढ़ते देख सुलेखा चुप हो गई. दुकान पर जा कर उस ने सुभाष को फोन किया और महात्माजी से मिलने की इच्छा प्रकट की. सुभाष दुकानदारी में व्यस्त था इसलिए उस ने असमर्थता प्रकट की. कुछ देर दुकान पर बैठ कर वह सुभाष के घर जा पहंचा. वहां जा कर पता चला कि स्वामीजी वहां से प्रस्थान कर चुके हैं. रमेश निराश हो कर लौट आया. रात को दुकान बंद कर कर घर गया तो मन उदास था क्योंकि स्वामीजी के दर्शन नहीं हो सके थे.

 

डिनर करते समय बेटा अमर बोला,”पापा, खाने के बाद आप मुझे कैमिस्ट्री पढ़ा देना, ट्यूशन में बहुत सारे बच्चे होते हैं. कुछ समझ नहीं आता. आप जब पढ़ाते हैं तो सब समझ आ जाता है,” यह सुन रोमा भी बोल उठी,”पापा, मुझे भी गणित पढ़ा दिया करो. मुझे गणित में कुछ समझ नहीं आता.”

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