डी कुंजाम और बी मरकाम दंपती नक्सलगढ़ के ग्राम जगरगुंडा के निवासी थे. दोनों हमउम्र और हमशक्ल सरीखे दिखते थे. वे कालेकलूटे थे और उन की कदकाठी भी एक सी थी. दोनों तकरीबन 5 फुट 5 इंच के थे. अंतर सिर्फ इतना था कि डी कुंजाम की हलकी मूंछ व बकरादाढ़ी उग आई थी, तो बी मरकाम के बाल बकरी की पूंछ जैसे थे. अभी उन की उम्र 20-21 साल की रही होगी.
जंगल में रहरह कर दोनों के गाल, नाक, कान, ठोड़ी, माथा, हाथपैर और बाल रूखेरूखे व बिखरेबिखरे थे, गोया दिनों से न नहाए हों व तेलक्रीम लगाए हों. कुल मिला कर यही कि दोनों के चेहरे काले, लंबे, छोटे व बदरंग थे. उन के नक्सली पोशाक मटमैले दिख रहे थे, मानो एक ही यूनिफौर्म को कईकई दिनों से पहन कर सोएबैठे हों. हालांकि उन में चपलता व साहसिकता कूटकूट कर भरी हुई थी लेकिन अभी वे निराशा व हताशा के गर्त में डूबे हुए दिख रहे थे.
थाने के थानेदार चूंकि दौरे पर निकले थे, इसलिए उन्हें वेटिंगरूम में रखी बैंच पर बैठ कर उन का इंतजार करने के लिए मुंशी ने उन से कहा.
वे दोनों एके-47 बगल में दबाए बैंच पर लुटेपिटे से बैठ गए और अगलबगल देखने लगे. कराहते हुए बैठतेबैठते बी मरकाम सोचने लगी, गर्भपात कर जहां उस के तनबदन को शक्तिहीना और उस को संतानहीना कर दिया गया है, वहीं डी कुंजाम की नस को काट कर उन्हें सदासदा के लिए बेऔलाद करने की गहरी साजिशें रची गईं. ऐसा कुकृत्य इंसान नहीं, शैतान ही कर सकता है, जिसे मानवता से कोई सरोकार न हो.
लिहाजा, मन में चलनेवाले उथलपुथल से बी मरकाम बेहद चिंतित थी और हद से ज्यादा थकावट महसूस कर रही थी. थाने की बैंच पर बैठने भर की जगह थी, इसीलिए वह कमजोरी के मारे उठ कर जमीन पर दोनों पैर सिकोड़ और हाथ का तकिया बना कर लेट गई.
उसे जमीन पर लेटता हुआ डी कुंजाम ने देखा, तो उस को आराम देने के लिए वह भी नीचे बैठ गया. फिर अपनी जांघ पर तकिए की तरह सिर रख कर आराम करने के लिए उस को कहने लगा.
बी मरकाम, डी कुंजाम की जांघ पर सिर रख कर जरा सी लेटी थी कि उस को सुख की अनुभूति हुई और मारे थकान के नींद आने लगी. नींदिया रानी के बांहपाश में फंसतेफंसते वह अतीत की आगोश में समाने लगी.
उस के दिलदिमाग में बालपन व सयानपन के वे दिन गुजरने लगे जिन के वशीभूत वह नक्सली संगठन की महिला विंग में शरीक हो गई थी. वह 5वीं बोर्ड पढ़ने के बाद आगे 6ठी इसलिए नहीं पढ़ सकी क्योंकि मिडिल स्कूल उस के गांव से कई कोस दूर था. उस के पिता लतखोर थे. उन के पास इतना पैसा नहीं बचता था कि वे उस के लिए साइकिल खरीद सकें और कपड़ेलत्ते, किताबकौपी व जूतेचप्पल का इंतजाम कर सकें.
वह सोच रही थी कि उस के पिता शराब के आदी न होते, तो उस की मां सुकमा के लाइनमैन के साथ न भागती. मां के घर में रहने पर उस को सही से शिक्षा मिल जाती, तो वह भी कुछ बन जाती.
उसे लगने लगा कि उस के नक्सली बनने के पीछे उस के पिता कुसूरवार हैं. ऐसा सोचतेसोचते उस का मुखमंडल कसैला हो गया, जो पिता के प्रति नफरत को और बढ़ा गया.
इन्हीं मुफलिसीभरे विकट माहौल में एक रात उस के गांव में नकाबपोश माओवादियों का आगमन हुआ. वे गांव के किशोरकिशोरियों, युवकयुवतियों और उन के पालकों की मीटिंग कर उन से कहने लगे, ‘इन्हें हमारे संगठन में भेज दो. हमें इन की जरूरत है. हम इन्हें रखेंगे, कपड़ा देंगे, खिलाएंगेपिलाएंगे और इन के लिए वेतन के रूप में धन का माकूल इंतजाम भी करेंगे.’
अतिगरीब मांबापों, जिन के घरों में खाने के लाले पड़े हों और जो अपने बच्चों के लिए कुछ खास नहीं कर पा रहे हों, ने खाना, कपड़ा व रुपयापैसा के लालच में हम किशोरकिशोरियों को नक्सलियों के सुपुर्द कर दिया और खुद चैन की बंशी बजाने लगे.
तब उस की उम्र 16 बरस की रही होगी, तो डी कुंजाम की 17 बरस. वे दोनों एक ही गांव के थे और जवानी की दहलीज पर कदम रख चुके थे.
एक दिन पुलिस-नक्सली मुठभेड़ में बी मरकाम को गोली लग गई, तो डी कुंजाम ने जान पर खेल कर जहां उस की जान बचाई, वहीं उसे पुलिस के हत्थे चढ़ने से भी बचा लिया.