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एक दिन अंधेरे जंगल में अकेले व सूनेपन का फायदा उठा कर कुंजाम ने मरकाम को बांहों में भरा और कहा, ‘मुझ से शादी करोगी.’

इस पर मरकाम ने उस से चुहल करी, ‘मैं तो कर चुकी!’

उस ने तैश में मुझे झिंझोड़ते हुए पूछा, ‘किस से?’

मरकाम ने उसे अपनी आगोश में भरते हुए उसी जोशीले अंदाज में कहा, ‘तुम्हीं से.’

इस तरह वे दोनों एकदूजे में समा गए. यह सिलसिला चल पड़ा, तो उन्होंने नक्सली नेताओं के नानुकुर के बावजूद एक देवगुड़ी में शादी कर ली. फिर वह दिन भी निकट आ गया जब मरकाम को 6 माह का गर्भ ठहर चुका था.

अब, प्रसव को ले कर चिंता बढ़ने लगी. एक दिन जंगल में पुलिस के डर से मरकाम जैसेतैसे खाना खाई और एके 47 बगल में दबाए उस पेड़ की घनी छांव में जा बैठी जिस में पत्ता बिछा कर डी कुंजाम पहले से बैठा था और आने वाले बच्चे को ले कर भविष्य के सपने बुन रहा था.

सुस्ताने के लिए बैठने पर उस के मन में विचारों का तांता उमड़ने लगा, ‘उस का प्रसव जंगल में होगा, तो होगा कैसे? यहां न अस्पताल है, न डाक्टर, न नर्स; न कोई सुविधा. उस के लिए तो यह भी बंधनकारी है कि वह किसी अस्पताल में जा कर भरती नहीं हो सकती. अजीब शामत है इस जौब में. जहां भी जाएगी, उस की पहचान उजागर हो जाएगी और लेने के देने पड़ जाएंगे.’

वह यह भी सोच रही थी, ‘जब आला नक्सली नेताओं की बीवियों की डिलीवरी का वक्त होता है तब वे किस तरह सुपर स्पैशलिटी हौस्पिटल में एडमिट हो जाती हैं. उन के बच्चों को मैट्रो सिटीज में या फिर विदेशी स्कूलों में दाखिला मिल जाता है. लेकिन उस के जैसे टटपुंजिए नक्सली लीडरों को न सुरक्षित प्रसव की सुविधा मिलती है, न बच्चों को माकूल तालीम की सहूलियतें.’

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