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आंदोलन में खास बात यही कि यह आरंभ से उग्र था, किंतु केंद्रीय नेतृत्व के देहांत के बाद हिंसक हो उठा. इस के नेता जब बंगाल से बाहर निकले, तब बिहार, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश के बीहड़ों में फैलने लगे.

‘चंद सालों में यह भारत का लिट्टे बन गया. वही लिट्टे, जो छापामार रणनीति के तहत बरसोंबरस श्रीलंका सरकार के नाक में दम किए हुए था और एक पीएम की जान ले कर बेदम हुआ.’

‘राज्यों के वनांचलों में कलेक्टर दर निर्धारण के बाद भी कारोबारी महुआ, चिरौंजी, साल बीज, कोसा, टोरा, तेंदूपत्ता, झाड़ू आदि वन्य निवासियों से नमक, तेल व कपड़े के बदले में कौड़ियों के मोल ले लिया करते थे. तब हमारे साथियों के दबदबे, धमक व धौंस के चलते इस तरह का शोषण थम गया. मजदूरी भी बराबर मिलने लगी. इस से प्रशासन व वनांचल वासियों पर हमारी धाक जम गई.

‘लिहाजा, अब हम गरीब, मजदूर, आदिवासी, किसान, दलित व वंचित वर्ग के सब से बड़े हिमायती व मसीहा बन कर उभरे. लेकिन, हमें सड़क, पूलपुलिया, आंगनबाड़ी, स्कूल, अस्पताल, पंचायत भवन आदि नहीं चाहिए क्योंकि इस से ग्रामीणों में जागरूकता आती है, जो हमारे ऊसूलों के खिलाफ ठहरती है.

‘गए 50 सालों में 13 प्रांतों के 194 जिलों के लगभग 40,000 हजार वर्ग किलोमीटर के दायरे में हमारा दबदबा कायम हो चुका है, जिसे हम ‘लाल गलियारा’ कहते हैं, जो भारत के कुल भूभाग का एकतिहाई है और नेपाल से केरल तक विस्तृत. ये प्रदेश हैं- मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, उत्तरप्रदेश, बिहार, असम, ओडिशा, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, केरल व कर्नाटक. इन में से भी 58 जिले पूर्णतया हमारी गिरफ्त में हैं, जहां हमारा ‘लाल कानून’ चलता है. हमारे लीडर यहां ‘जनअदालतें’ लगाते हैं, और ‘जनताना सरकार’ चलाते हैं.

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