नीरा देवी जब फोन कर के आई तो उन्होंने मोहित का स्वर सुना. वह अपने पिता से कह रहा था, ‘‘पिताजी, आप ने भी तो सुबह से कुछ नहीं खाया है. जा कर कुछ खा लीजिए. मैं अब पहले से अच्छा महसूस कर रहा हूं.’’ नीरा की भूख और बढ़ गई. पतिपत्नी दोनों ने मन्नू का लाया खाना रूचि के साथ खाया. खातेखाते नीरादेवी के पति बोले, ‘‘कल से मोहित को खिचड़ी बना कर खिलाना. चारछ: दिन उसे हलका और परहेजी खाना चाहिए. दवा देना और तापमान नोट करना. अच्छा तो यही होगा कि ज्यादा समय उसी के पास बिताओ ताकि उसे लगे कि उस की परवा की जा रही है. उस की लगन से की गई तीमारदारी उस के शीघ्र ठीक होने में सहायक सिद्ध होगी.’’
नीरा सुबह से सब काम ठीक ही कर रही थीं. पर खामोश थीं. आया के चारपांच साल के बच्चे की तबीयत खराब थी, इसलिए नहीं आई. उस ने मन्नू को फोन करवा दिया कि जब उस के बच्चे की तबीयत ठीक हो जाएगी वह तभी आएगी. यदि साहब पैसे काटना चाहें तो काट लें. उस के पास अपना मोबाइल नहीं है वरना नीरा उसे फोन पर ही झाड़ लगा देती.
यह सुन कर नीरा देवी ने तनबदन में आगे लग गई. वह मन ही मन बुदबुदाई, ‘एक तो मुझ पर काम का बोझ बढ़ा दिया, ऊपर से यह सीनाजोरी. वह जब भी आएगी उसे ऐसा सबक देना पड़ेगा कि जिंदगी भर याद रखें.’
मोहित की तबीयत 2-3 दिन में पूरी तरह ठीक हो गई. बस, कमजोरी रह गई थी. अगले दिन उसे नहलाना था. संयोग से उसी दिन आया भी आ गई. उस का बच्चा भी ठीक हो गया था. अब नीरा ने उसे डांटा नहीं, क्योंकि उस के दूसरे ही दिन उन्हें देहरी ग्राम जा कर वहां के जाटव बच्चों का सामूहिक स्नान कराने का कार्यक्रम पूरा करना था. बाकी तैयारियों के लिए द्वारका देहरी ग्राम चला गया था. इसी सिलसिले में नीरादेवी ने क्लब की सदस्याओं की अपने ही घर एक बैठक बुलाई थी.
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