इतने में पुष्पा मावे की बरफी और कचौड़ियां ले आई जो उस के पतिदेव बच्चों के खाने के लिए बाजार से लाए थे. पुष्पा की निगाह उन पर पड़ गई और वह सहेलियों को इन्हें अपनी बनाई कह कर रौब जमाने की खातिर उठा लाई.
‘‘इतना सारा क्यों ले आई? कितनी परेशानी उठा रही हो.’’ कहतेकहते सब उस पर टूट पड़ीं.
पुष्पा ने नौकर को चाय बनाने का आदेश दिया.
‘‘यही बहुत है, अब चाय और क्यों बनवा रही हो?’’ कचौड़ी मुंह में ठूंस कर नीरादेवी ने कहा.
पुष्पा ने जब देखा कि उस के हाथ कुछ आने से पहले ही सब खत्म हो जाएगा तो उस ने झट से एक कचौड़ी हाथ में लेते हुए जवाब दिया, ‘‘कचौड़ी का मजा तभी पूरा होगा, जब चाय पिएंगे.’’
नीरादेवी जब घर पहुंची तो बाहर डाक्टर की गाड़ी खड़ी थी. उसे देख कर सहेलियों ने पूछा, ‘‘नीराजी, किसी की तबीयत खराब है क्या?’’
‘‘नहीं, ऐसी कोई खास बात नहीं. मुन्ना को थोड़ी हरारत सी थी. वैसे भी डाक्टर विमल और इन की दोस्ती आप लोगों को मामूल ही है. उन का जब मन करता है इन के पास आ जाते हैं.’’ जवाब दे कर नीरादेवी घर के अंदर चली गईं.
डाक्टर ने उलाहना दिया, ‘‘नीराजी, मुन्ना की तबीयत इतनी अधिक खराब है, आप उसे इस तरह छोड़ कर कहां चली गई थीं? क्या आप का जाना इतना जरूरी था?’’
नीरा देवी ने पहले पति के तमतमाए चेहरे की ओर देखा, फिर हिम्मत बटोरती हुई बोलीं, ‘‘डाक्टर साहब, यदि जरा सी बीमारी पर बच्चों को इतना लाड़ देने लगें तो क्या इस से बच्चे जिद्दी और गैरजिम्मेदार नहीं हो जाएंगे? जब तक घर पर रही, उसे बराबर दवाई दी. मैं कहीं भी बाहर जाने से पहले इन को या आया को सब कुछ अच्छी तरह समझा कर ही जाती हूं.’’
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