कार्यक्रम दोबारा बना. पुण्पा को बताया, ‘अब पहले तुम्हारे पास आ रही हूं, 3 दिन बाद मामाजी के यहां जाऊंगी, जाना जरूरी है, फिर लौट कर 4 दिन तुम्हारे साथ रहूंगी, फिर वापस बुदापैश्त. अब तो ठीक है?’ पुण्पा खुश थी.
मैं उत्साहित भी थी और थ्रिल्ड भी. परदेश में पहली बार अकेले घूमने जा रही थी. लोगों ने कहा, डर की कोई बात नहीं है, यह भारत तो है नहीं है कि अकेली औरत देखते ही लोग माहौल सूंघने के लिए आसपास मडराने लगें. यहां तो अकेले ही आनेजाने का चलन है.
पैकिंग हो गई. फारेंट, जिलौटी और यूरो को पर्स के अलगअलग खानों में रख कर अनुराग ने काफी हिदायतें दे दीं. मेरे मैथ्स पर उन्हें कभी भरोसा नहीं रहा. ट्रेन कैलेती स्टेशन से चलती थी. टैक्सी ले कर जब स्टेशन पहुंचे तो पता चला प्लेटफौर्म पर केवल यात्री ही जा सकते हैं. भारी मन से अनुराग को विदा दे कर धडक़ते दिल से अटैची घसीटते कंधे पर भारी सा बैग संभालती आगे बढ़ी. ट्रेन लगी हुई थी. सामने ही यूनिफौर्म में टीटी खड़ा था. उस के बताए कूपे में घुस कर अपनी बर्थ देखी. कूपे में 6 सीटें थीं, शीशे के दरवाजे पर परदा पड़ा था.
ट्रेन सुबहसुबह वार्सा पहुंच गई. उतर कर बाहर जाने का रास्ता पूछा और माल असबाब के साथ बाहर आ गई.
‘टैक्सी?’ एक टैक्सीवाला मेरे बाहर निकलते ही आ कर पूछने लगा. ‘वाह, यहां भी इंडिया की तरह है,’ सोचा और पुण्पावती का पता उसे दिखा दिया.
‘ओके, ओके,’ करता वह टैक्सी की ओर बढ़ा. सामान रख कर मैं भी टैक्सी में बैठ गई. चलतेचलते करीब आधा घंटा हो गया. वार्सा की साफसुथरी, लंबीचौड़ी सडक़ें अभी अंगड़ाई ले रही थीं. ट्रैफिक पूरी तरह शुरू नहीं हुआ था, न ही दुकानें खुली थीं. मगर सुबह की हलकीफुलकी चहलपहल शुरू हो चुकी थी. वार्सा बुदापैश्त से ज्यादा खुला और आधुनिक लगा. होना ही था. विश्व युद्ध में तो यह शहर लगभग पूरी तरह से ध्वस्त हो गया था, पर जितनी तेजी से और सुंदरता से इसे नया रूप कर दिया गया था उस से पोलिश लोगों की मेहनत, इच्छाशक्ति और कल्पना का लोहा मानना ही पड़ा.
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