ट्रेन के कूपे में अपनी बर्थ पर पहुंच कर मैं एक तरह से ढह ही गई. कूपे का अटेंडैंट मेरा भारी बैग खिसकाता ले आ रहा था. यों तो पोलैंड के वार्सा स्टेशन पर कुली नहीं थे पर न जाने क्यों, शायद मैं प्रथम श्रेणी की यात्री थी या विदेशी थी, उस ने इशारे से अटैची के लिए हाथ बढ़ाया तो मैं ने झठ हैंडल उसे पकड़ा दिया.
स्टेशन के गेट से ले कर ट्रेन तक सामान घसीटने में ही मैं हांफने लगी थी. इस बीच मेरा सामान निर्धारित स्थान पर रखा जा चुका था. अटेंडैंट को थैंक्स कह कर खुद को व्यवस्थित करने में जुट गई. अभी 2 यात्री और आते होंगे, मैं ने सोचा, कितना अच्छा हो कि वे महिलाएं हों. तभी खिडक़ी के बाहर निगाह गई, ट्रेन तो चल पड़ी थी. कोई अफरातफरी नहीं, कोई सीटी-झंडी नहीं, न कोई दौड़ते हुए चढ़ा न कोई हड़बड़ा कर उतरा.
यों तो अब तक मैं यूरोप में कई ट्रेन यात्राएं कर चुकी थी पर अभी भी ट्रेन का इस तरह चुपचाप चल पडऩा देख कर हैरानी होती थी. इस का मतलब अब कोई दूसरा सहयात्री नहीं होगा. अच्छा लगा, मैं इस समय अकेले ही रहना चाहती थी.
‘‘टिकट प्लीज,’’ टीटी आ गया था. मैं ने टिकट और पासपोर्ट दे दिया. थोड़ी देर उलटपलट कर देखने के बाद उस ने दोनों चीजें वापस कर दीं.
‘‘टी आर कौफी इन द मौर्निंग?,’’ वह पूछ रहा था.
‘‘कौफी.’’
‘‘ओके, प्लीज क्लोज द डोर,’’ और वह निकल गया.
अब मैं ने कूपे का मुआयना करना शुरू किया. एक ओर सामान रखने की जगह थी जिस पर मेरी अटैची रखी थी. उस पर 3 हैंगर लटके थे. कोने में तिकोनी टेबल थी जिस का टौप उठाने पर वौशबेसिन था और नीचे डस्टबिन. टेबल के ऊपर छोटी सी अलमारी थी. खोल कर देखा, 3 चौकलेट, केक, 3 बोतल पानी, गिलास और 3 पैकेट्स में तौलिया-साबुन रखे थे. कूपे में 3 ही बर्थ थीं. सब पर कायदे से सफेद चादर बिछी थी. सब देख मन खुश हो गया. चौकलेट खा कर पानी पिया तो कुछ राहत मिली. बाहर देखा, अंधेरा होने लगा था. खिडक़ी की स्क्रीन बंद की और लाइट बुझा कर बिस्तर पर लेट गई.
आंखें बंद होते ही ट्रेन रुक गई, ‘ओह, ये स्काइप पर पुण्पावती कैसे आ गई?’
‘‘कैसी हो सुधा, अकेलेअकेले बड़ा जी घबरा रहा था, सोचा तुम से थोड़ी बातें कर लूं.’’
‘‘मगर अभी मैं तुम्हारे घर से ही तो ट्रेन में चढ़ी थी. इतनी जल्दी बुदापैश्त पहुंच भी गईं?’’
‘‘मेरे घर? मैं तो कब से तुम्हें बुला रही हूं, तुम मेरे पास आईं ही कब?’’
‘‘अअअअच्छाआआआ…बाद में बात करती हूं, अभी तबीयत ठीक नहीं लग रही,’’ मैं ने घबरा कर लैपटौप बंद कर दिया. प्यास से गला सूख रहा था. झटके से आंख खुल गई. मैं तो ट्रेन में अपनी बर्थ पर थी, पानी पिया, ओह गौड, नो मोर पुण्पावती…मेरा सिर घूम रहा था. पिछले एक साल की तमाम यादें न जाने कब का बदला लेने एकसाथ टूट पड़ीं.
बुदापैश्त के 2 कमरे के फ्लैट में अनुराग के काम पर चले जाने के बाद इस कमरे से उस कमरे में भटकती मैं. कभी एक बालकनी में खड़ी होती कभी दूसरी में. न अगलबगल में कोई दिखता न सडक़ पर. ‘हे प्रकृति, कैसे कटेंगे 2 साल इस मनहूस शहर में. हमारे यहां तो बालकनी में खड़े हो कर ही इतना मनोरंजन हो जाता है कि समय कब उड़ गया, पता ही नहीं चलता. अब मैं इस पीढ़ी की तो हूं नहीं जिस की सारी दुनिया टीवी, लैपटौप या मोबाइल में समाई रहती है. न हिंदी के गाने, न हिंदी के चैनल्स’. घबराया बेचैन मन तलाश में कि अनुराग के जाने के बाद कुछ तो समय बीते. हिंदुस्तान से हंगरी के समय का भी 7 घंटे का अंतर था, इसलिए हर समय वहां भी बात करना संभव नहीं था.
एक दिन, ‘अच्छा, चलो आज तुम्हें सरप्राइज देते हैं,’ कहते हुए अनुराग ने स्काइप खोला. मित्रों की लिस्ट में एक नाम ‘पुण्पावती’ था.
‘ये कौन हैं?’
‘तुम्हारी तरह एक बोरियत की मारी,’ अनुराग मुसकराए, ‘अंतर इतना भर है कि ये वार्सा यूनिवर्सिटी में विजिटिंग प्रोफैसर हैं.’
‘पति को छुट्टी नहीं मिली सो वे आ नहीं पाए. बेटी नौकरी करती है, सो क्लास के बाद बिलकुल अकेली हो जाती हैं.’
‘इन का समय तो क्लास में कट ही जाता होगा.’
‘लो यार, तुम्हें कौन सा रातदिन इन्हीं से बात करनी होगी. धीरेधीरे तुम्हारा सर्कल बन जाएगा.’
‘ठीक है. वे आनलाइन हैं, मिलाओ, देखें बात हो सकती है या नहीं.’
मेरे मन में कोई खास उत्साह नहीं था. हमारे लैपटौप का कैमरा खराब था सो केवल आवाज सुनी जा सकती थी.
जाने परदेश के अकेलेपन की मार थी या एकजैसी परिस्थितियां, बातचीत दोस्ती में बदलती गई. बड़े सहज रूप में एक दिन उन्होंने वार्सा आने का निमंत्रण दिया और थोड़ी झिझक, संकोच व अनुराग के कहने के बाद मैं ने उसे मान भी लिया.
पुण्पावती खुश हो गई, ‘अरे वाह भाई सुधा, मुझे तो उम्मीद नहीं थी. मेरी इधर छुट्टियां होने वाली हैं, मैं परेशान थी कि टाइम कैसे पास होगा. मैं बुदापैश्त पहले न आ चुकी होती तो जरूर आ जाती. अब तुम पोलैंड आओगी तो खूब घूमेंगे. अरे हां, तुम जरमनी घूम आई हो क्या?’
‘नहीं, कोई साथ ही नहीं मिलता. अनुराग के पास तो टाइम ही नहीं है.’
‘कोई बात नहीं, तुम अनुराग जी से कह कर वहां कोई होटल बुक करा लेना. डेट देख लेते हैं. यहां से फिर जरमनी चलेंगे. केवल बर्लिन.’
कुछ दिन कार्यक्रम तय करने की सरगरमियां चलती रहीं. लंबीलंबी बातें, एक ओर पुण्पा से दूसरी ओर अनुराग से. आखिरकार कार्यक्रम फाइनल हुआ.
‘पुण्पा, मैं 3 दिन तुम्हारे साथ रह कर लिथुआनिया चली जाऊंगी, वहां मेरे मामा रहते हैं, 2 दिन उन के पास रह कर वापस बुदापैश्त आ जाऊंगी.’
‘सिर्फ 3 दिन के लिए आना भी कोई आना हुआ?’ मैं ने तो सोचा था खूब घूमेंगे. मेरा भी कुछ टाइम अच्छा पास हो जाएगा, मगर तुम तो…’ पुण्पा की आवाज रोंआसी हो गई.