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बस में झटका लगा, तो नंदू की आंखें खुल गईं. उस ने हाथ उठा कर कलाई में बंधी घड़ी देखी, "अरे, अभी तो 2 ही बजे हैं. बस तो दिल्ली सुबह साढ़े 7 बजे तक पहुंचेगी. अगर बस पंख लगा कर उड़ जाती, तो यह 5 घंटे का सफर 5 मिनट में कट जाता. तब कितना अच्छा होता."

घर छोड़े आज पूरे 22 दिन हो गए हैं. पिछले एक सप्ताह से तो अश्वित से बात भी नहीं हुई है. पता नहीं क्या करता रहता है. न तो घर का ही फोन लग रहा है, न ही उस का मोबाइल.

निकलते समय बात हुई थी कि दिन में एक बार जरूर बात करेगा, पर यह लड़का... नंदू को थोड़ी चिंता हुई, अश्वित कहीं बीमार तो नहीं पड़ गया? पर बीमार होता तो फोन तो लगना चाहिए था. एकदम बेवकूफ लड़का है. नंदू को सहज ही गुस्सा आ गया. उस ने बस में नजर फेरी, हलकी रोशनी में बस की सवारियां गहरी नींद में सो रही थीं. उस ने खिड़की से बाहर की ओर देखा, दुनिया जैसे गहरे अंधकार में डूबी थी. वैसा ही अंधकार उस के जीवन में भी तो समाया हुआ था.

मां की मौत के बाद ही रंजनाजी से उस की मुलाकात हुई थी. रंजना उस समय अश्वित के जन्म के लिए इलाहाबाद अपने मायके आई हुई थीं. रंजना के मायके में नंदू की मामी काम करने आती थी.

मां की मौत के बाद नंदू के मामा उसे अपने घर ले आए थे. उस समय नंदू की उम्र 14-15 साल रही होगी.

रंजनाजी उसे बहुत अच्छी लगती थीं. जब कभी वह रंजना के पास बैठती, रो पड़ती. उस की मां को मरे हुए अभी 6-7 महीने ही हुए थे. मामी के साथ रहना उसे अच्छा नहीं लगता था. दूसरा कोई सगा रिश्तेदार था नहीं. सारे रास्ते बंद हो गए थे. ऐसे में रंजनाजी उस का सहारा बनीं.

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