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नंदू मना करती रही, पर वह माने तब न? आखिर अश्वित पैसा जमा ही कर आया. फिर तो नंदू को चारधाम की यात्रा पर जाना ही पड़ा. ‘बड़ा जिद्दी है,’ नंदू के मुंह से एकाएक निकल गया. बगल वाली सीट पर बैठी महिला ने उस की ओर चौंक कर देखा, पर तब तक उस ने आंखें बंद कर ली थीं. आंखें बंद किए हुए ही नंदू सोचने लगी, ‘इस समय वह क्या कर रहा होगा? इस समय तो सो रहा होगा, और क्या करेगा.’

नंदू का वेतन प्रबोधजी सीधे उस के बैंक खाते में पूरा का पूरा जमा कर देते थे. खर्च के लिए ऊपर से सौ,

दो सौ रुपए दे देते थे. वह पैसा अश्वित अपने क्रिकेट, बौल, खिलौनों और चौकलेट पर उड़ा देता था.

रंजना बड़बड़ातीं, ‘‘तू नंदू का पैसा क्यों खर्च करता है? तुझे जरूरत हो, तो मुझ से मांग.’’

‘‘आप मुझे जल्दी कहां पैसा देती हैं. पचास सवाल करती हैं. नंदू तो तुरंत पैसा दे देती हैं.’’

‘‘पर, तुम नंदू का पैसा इस तरह खर्च करते हो, यह अच्छा नहीें लगता.’’

‘‘क्यों अच्छा नहीं लगता?’’

‘‘यह लड़का तो...’’ रंजनाजी सिर पीट लेतीं.

ऐसा नहीं था कि रंजनाजी नंदू के बारे में कुछ नहीं सोचती थीं. न जाने कितनी बार उन्होंने नंदू से शादी के लिए कहा था, पर नंदू ने हमेशा सिर झटक दिया था, ‘‘अब यही मेरा घर है और आप ही लोग मेरे सबकुछ हैं. अब मुझे शादी नहीं करनी. मेरा जीवन इसी घर में कटेगा.’’

‘‘भला इस तरह कहीं होता है नंदू? शादी तो करनी ही पड़ेगी,’’ रंजना उसे समझाने की कोशिश करतीं, पर नंदू उन की बात पर ध्यान न देती.

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