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“प्यार की व्याख्या हमारा समाज शुरू से ही गलत ढंग से करता आया है. प्यार में विवाह की परिणति नहीं हुई या एकदूसरे के मिलने में बाधाएं आईं या कोई और वजह रही हो, प्यार करने वालों का मिलन नहीं हो पाया तो अपनी जान दे दी. जहर खा कर मर जाने या दरिया में डूब कर मर जाने या मजनूं बन दीवाना हो जाना कोई प्यार नहीं है. प्रेमी या प्रेमिका ने प्यार में धोखा दे दिया तो जान दे दी या उस की याद में घुलघुल कर जिंदगी बिता दी. मैं इसीलिए रोमियो-जूलियट, शीरीं-फरहाद, लैला-मजनूं, हीर-रांझा के प्यार को प्यार नहीं मानता हूं. उन की गाथाओं को प्रेमकथा नाम दे पढ़ा और पढ़ाया जाता है. फेमस क्लासिक के रूप में वे बरसों से हमारे घरों, पुस्तकालयों और दुकानों में अपनी जगह बनाए हुए हैं. और तुम युवा लोग तो खासतौर पर उन्हें खूब पढ़ना पसंद करते हो और मुझे भी मजबूरी में उन्हें पढ़ाना पढ़ता है क्योंकि वे तुम्हारे कोर्स का हिस्सा हैं.” प्रो. विवेक शास्त्री बोल रहे थे और उन के स्टूडैंट्स मंत्रमुग्ध हो उन्हें सुन रहे थे. उन की आवाज में एक जादू था और शब्दों का प्रस्तुतीकरण इतना सुंदर होता था कि घंटों उन्हें सुना जा सकता था और पलभर के लिए भी बोरियत महसूस नहीं होती थी.

इंग्लिश लिटरेचर के प्रो. विवेक शास्त्री स्टूडैंट्स के चहेते प्रोफैसर थे. कालेज खत्म होने के बाद शाम को कुछ स्टूडैंट्स उन के घर आ कर जमा हो जाते थे. इंग्लिश लिटरेचर पढ़ाने के साथसाथ प्रो. शास्त्री नाटक लिखते थे और खुद उस का मंचन करते थे. अकसर नाटकों की रिहर्सल उन के घर पर ही हुआ करती थी. इस समय भी नाटक की रिहर्सल करने के लिए स्टूडैंट्स का जमावाड़ा उन के घर में लगा हुआ था. पर अचानक बात रोमियो-जूलियट पर आ कर अटक गई थी. कालेज में वे आजकल शेक्सपियर के नाटक रोमियो-जूलियट को ही पढ़ा रहे थे.

40-42 साल के प्रो. विवेक शास्त्री हमेशा सफेद कुरतापाजामा पहनते थे, एकदम कलफदार. आंखों पर काले फ्रेम का मोटा चश्मा, कंधे पर झूलता जूट का बैग और पैरों में कोल्हापुरी चप्पल…एकदम सादा पहनावा…इंग्लिश लिटरेचर के प्रोफैसर के बजाय वे हिंदी के किसी साहित्यकार की तरह लगते थे. लेकिन वे अपनी ही दुनिया में मस्त रहने वाले और पौजिटिव सोच के साथ चलने वालों में से थे. प्रो. शास्त्री दुनिया की बातों से परे और अपनी आइडियोलौजी को शिद्दत से फौलो करने वालों में से थे.

उन के हुलिए और सादगी पर अकसर उन की पत्नी रीतिका उन्हें छेड़ा करती थी, ‘इंग्लिश लिटरेचर पढ़ाने वाला तो कोई मौडर्न और स्टाइलिश व्यक्ति होना चाहिए. तुम तो झोलाटाइप महादेवी वर्मा और जयशंकर प्रसाद की कविताओं को पढ़ाने वाले बोर से दिखने वाले प्रोफैसर लगते हो. निराला की ‘मैं पत्थर तोड़ती’ कविता अगर तुम पढ़ाओ तो वह तुम्हारी पर्सनैलिटी के साथ ज्यादा सूट करेगी. कहां तुम शेक्सपियर, जौन मिल्टन, जौर्ज इलियट पढ़ा रहे हो…’

प्रो. शास्त्री तब ठहाका लगाते, अपने कुरते की बांह की सिलवटें ठीक करते हुए रीतिका के गालों को सहलाने के साथ महादेवी वर्मा की कविता का अंश सुना देते, ‘तारक-लोचन से सींच सींच नभ करता रज को विरज आज, बरसाता पथ में हरसिंगार केशर से चर्चित सुमन-लाज;

कंटकित रसालों पर उठता है पागल पिक मुझ को पुकार! लहराती आती मधु बयार !!

‘तुम हो न मेरी महादेवी…घर में एक ही इंसान कवि हो, वही ठीक है, वरना ‘मैं नीर भरी दुख बदली…’ का कोरस चलता रहता हमारा.’

रीतिका के गाल तब आरक्त हो जाते. वह कविता लिखने का शौक रखती थी और प्रो. शास्त्री उसे अपनी प्रेरणा मानते थे. रीतिका ने एमए हिंदी औनर्स में किया था, पर प्रो.शास्त्री के बहुत कहने पर भी वह कभी नौकरी करने को तैयार नहीं हुई. घर के काम करना और तरहतरह की डिशेज बनाना उस का शौक था. खुशमिजाज, सांवले रंग वाली रीतिका बहुत ही नफासत से साड़ी पहनती थी. कौटन की साड़ी, गोल चेहरे वाले माथे पर लाल गोल बड़ी सी बिदी, कानों में लटकते झुमके और हाथों में दोदो सोने की चूड़ियां…हमेशा सलीके से रहती थी वह.

प्रो. शास्त्री के स्टूडैंट्स अपनी रीतिका दीदी को रोल मौडल की तरह देखते थे. उस के हाथ के बने व्यंजन खाने के लिए वे कभीकभी यों भी उन के घर चले आते थे. फूलों से झरती मुसकान के साथ वह बिना झुंझलाए हमेशा उन का स्वागत करती और उन की फरमाइशें पूरी करती. उन का अपना कोई बच्चा नहीं था, इसलिए इन स्टूडैंट्स को अपने बच्चे मानते.

स्टूडैंट्स उन दोनों को परफैक्ट कपल कहा करते थे और दोनों थे भी परफैक्ट कपल…मेड फौर इच अदर.

“सर, अगर रोमियो-जूलियट का प्यार, प्यार नहीं था या आप उसे प्रेम नहीं मानते तो वे अमरप्रेम के दायरे में कैसे आते हैं? लोग उन की मिसाल क्यों देते हैं? क्यों हमें उन्हें पढ़ना पढ़ता है? लंबे समय से प्यार करने वाले उन्हें अपना आइडियल मान प्यार में नाकाम हो जाने पर जान दे रहे हैं,” वैभव ने पूछा. लंबे कद का वैभव अत्यधिक सैंसिटिव व गंभीर प्रकृति का लड़का था. पढ़ना उस का ध्येय था और वह एक बेहतरीन अभिनेता बनना चाहता था. उस के अभिनय का लोहा प्रो. शास्त्री भी मानते थे, इसलिए उन के द्वारा मंचित हर नाटक में उस की अहम भूमिका होती थी. खादी का कुरता और जींस उस की स्टाइल स्टेटमैंट थी. एक कान में बाली भी पहनता था. मिडिल क्लास फैमिली का था और हर चीज को बहुत सीरियसली लेता था, खासकर प्रोफैसर की बातों के तो मर्म तक पहुंचना चाहता था. इसलिए कोई और सवाल करे न करे, वह जरूर करता था.

उस के सवाल का जवाब देते हुए प्रो. शास्त्री बोले, “प्यार का मतलब होता है अपने जीवन की सारी समस्याओं, सारी परेशानियों और दुख में एकदूसरे का साथ देना, एकदूसरे की गलतियों को माफ करना, उसे सपोर्ट करना और सहयोग देना. कभी कोई भूल हो जाए तो उसे नजरअंदाज कर देना. आखिर जीवन उसी के साथ तो काटना है.” प्रो. शास्त्री ने भावपूर्ण नजरों से रीतिका की ओर देखा तो उस के गाल आरक्त हो गए. होंठों से झरती मुसकान का उजास उस के चेहरे पर फैल गया.

“प्यार को हमेशा जताते रहना, प्यार के कसीदे पढ़ते रहना या जान दे देना…यह प्यार नहीं, बल्कि बाहरी प्रक्रियाएं हैं. आंतरिक अनुभूति शब्दों से व्यक्त नहीं होती, वह भावों से प्रकट होती है; साथी के प्रति विश्वास से प्रकट होती है. प्यार नहीं मिला या बेवफा निकला या उस से कोई गलती हो गई तो उस पर जान दे दी या उस की जान ले ली…तो प्यार बचा कहां…” पलभर के लिए चुप हो कर उन्होंने सब की ओर एक दृष्टि डाली, फिर वैभव के कंधे को थपथपाते हुए पूछा, “समझ में आया कुछ तुम लोगों को?”

“कुछ आया कुछ नहीं आया,” अंजुम ने अपना सिर खुजलाते हुए बहुत ही मासूमियत से कहा तो उस की शक्ल देख सब को हंसी आ गई.

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