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मानव ने वसुधा को फोन करवा के बुलाया. वसुधा मानो आने के लिए तैयार ही थी. ‘‘आओ वसुधा, मैं ने तुम्हारे और अपने रिश्ते के बारे में, भविष्य के बारे में बहुतकुछ सोचा. ईमानदारी से कहूं तो मैं आज तक एक पल के लिए भी तुम्हें भुला नहीं पाया हूं और आज जब तुम मुझे इस हाल में अपनाने को तैयार हो, तो मैं इस मौके को खोना नहीं चाहूंगा, करीब पा कर फिर मैं तुम्हें दूर नहीं कर पाऊंगा.’’

वसुधा को विश्वास ही नहीं हुआ, उसे मानो मनमांगी मुराद मिल गई थी. ‘‘मैं जानती थी मेरे प्यार में ताकत है, सचाई है. मैं कल ही वकील से...’’

‘‘नहीं वसुधा, अदालत के चक्कर, वकीलों की झंझट, उस से होने वाली रुसवाई और बदनामी की आग में मैं तुम्हें झुलसने नहीं दूंगा. मैं ने कुछ और ही सोचा है. वह तभी हो पाएगा जब तुम्हें साथ देना गवारा हो, तुम्हें सही लगे तो ठीक है वरना मेरी तरफ से तुम आज भी आजाद हो.’’

‘‘क्या सोचा है तुम ने, मैं हर हाल में तुम्हारे साथ हूं.’’

‘‘खून, कत्ल...’’

‘‘खून...आनंद का?’’ वसुधा सकते में आ गई.

‘‘हां वसुधा, और कोई रास्ता भी तो नहीं है. तुम सोच कर जवाब देना, कोई जबरदस्ती नहीं है. मेरे आदमी यह काम बखूबी कर देंगे, किसी पर शक नहीं जाएगा, न तुम पर न मुझ पर. कल भारतीय राजदूतावास में एक कार्यक्रम है जिस में भारत से कई व्यवसायी शिरकत कर रहे हैं, और दल को लीड करने वाला कोई और नहीं, तुम्हारा पति है, तुम्हारे बच्चे करण का पिता. वही आनंद, जिस के साथ तुम ने शादी का बंधन बांधा था और जिसे तुम अब तोड़ने जा रही हो. मैं चाहता हूं कल ही तुम्हारा पति तुम्हारा एक्स पति हो जाए. बस, तुम करीब एक लाख डौलर का इंतजाम कर दो.’’

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