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अस्पताल पहुंचते ही फौरन करण का इलाज शुरू हो गया. ‘बच्चे की आंखों का कार्निया डैमेज हो चुका है, अगर कुछ देर और हो जाती तो औप्टिकल नर्व भी कट सकती थी. फिलहाल, बच्चा देख नहीं पाएगा,’ डाक्टर ने राय जाहिर की.

‘क्या कोई उम्मीद नहीं,’ आनंद ने हौले से पूछा.

‘आस तो रखिए, मगर उम्मीद नहीं. शायद कभी कोई ऐसा डोनर मिल जाए, जिस की आंखों का यह हिस्सा सही हो तो उस के कार्निया की मदद से इस की आंखों की रोशनी आ जाए. मगर पूरी तरह से मैचिंग हो जाए तभी ऐसा मुमकिन हो पाएगा.’

फोन की बजती घंटी वसुधा को अतीत से वापस वर्तमान में ले आई. फोन पर दूसरी ओर आनंद था जो करण की खैरियत पूछ रहा था. वसुधा चाह कर भी आनंद से मानव का जिक्र नहीं कर पाई.्र

अगले दिन वसुधा ने मानव को दफ्तर की तरफ जाते देखा तो वह भी पीछेपीछे पहुंच गई. मानव अपनी कुरसी पर बैठ ही रहा था कि एक बरसों से अनजान मगर सदियों से परिचित खुशबू ने उसे पलभर के लिए चौंका दिया, संयत हो कर मानव ने धीरे से कहा, ‘‘आओ वसुधा, सबकुछ हो गया न, कोई दिक्कत तो नहीं हुई? करण कहां है?’’

सबकुछ ठीक हो गया मगर ठीक कुछ भी नहीं है. मैं समंदर में गोते लगाती एक ऐसी नैया हूं जिस का न कोई किनारा है न साहिल. नियति एक के बाद एक मेरी परीक्षाएं लेती आ रही है और यह सिलसिला चलता जा रहा है, थमने का नाम ही नहीं ले रहा. कभी नहीं सोचा था कि तुम से यों अचानक मुलाकात हो जाएगी. जो कुछ कालेज में हुआ उस के बाद तो मैं तुम से नजर ही नहीं मिला सकती, कितने बड़े अपराधबोध में जी रही हूं मैं.’’

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