अगले 3 दिन तैयारी और इंतजार में बीते. मुन्नू का मन टैलीविजन से हटा देख रश्मि भी रम गई. वह भी बच्चों के साथ नन्ही बच्ची बन गई. उस का बस चलता तो बच्चों के साथ वह भी पिकनिक पर पहुंच जाती, पर बच्चे बहुत चालाक थे. उन के पास बड़ों का प्रवेश वर्जित था.
नन्हेमुन्नों का उल्लास देखते ही बनता था. आखिर वादविवाद, शोरशराबेभरी तैयारियां पूरी हुईं. पिकनिक वाले दिन मुन्नू मां की एक आवाज पर जाग गया. दूध और नाश्ते का काम भी झट निबट गया. 9 भी नहीं बजे थे कि नहाने और बननेठनने की तैयारी शुरू हो गई.
नहाने के बाद मुन्नू बोला, ‘‘मां, मेरा कुरतापजामा निकालना और अचकन भी.’’
‘‘अरे, तू पिकनिक पर जा रहा है या किसी फैंसी ड्रैस शो में.’’
‘‘नहीं मां, आज तो मैं वही पहनूंगा…’’ स्वर की दृढ़ता से ही रश्मि समझ गई कि बहस की कोई गुंजाइश नहीं है.
‘मुझे क्या,’ वाले अंदाज में रश्मि ने कंधों को सिकोड़ा और नीचे दबे पड़े कुरतापजामा व अचकन को निकाल लाई और प्रैस कर उन की सलवटों को भी सीधा कर दिया.
अचकन का आखिरी बटन बंद कर के रश्मि ने बेटे को अनुराग से निहारा और दुलार से उस के गाल मसले तो बस, छोटे मियां तो एकदम ही लाड़ में आ कर बोले, ‘‘मां…मां, तुम्हें पता है, सिंह आंटी कितनी कंजूस हैं.’’
‘‘मुन्नू…, बुरी बात’’, मां ने टोका.
‘‘सच मां, सब दोस्त कह रहे थे, पता है अंकुश पिकनिक में सिर्फ बिछाने की दरी ला रहा है.’’
‘‘तो क्या? बिछाने की दरी भी तो जरूरी है. फिर सिंह आंटी तो काम
पर भी जाती हैं. कुछ बनाने का समय नहीं होगा.’’
‘‘नकुल की मम्मी औफिस नहीं जातीं क्या? वह भी तो केक और बिस्कुट ला रहा है.’’
‘‘अच्छा, चुप रहो. अंकुश से कुछ कहना नहीं. वह तुम्हारा दोस्त है, मिलजुल कर खेलना,’’ रश्मि बेटे को समझाते हुए बोली.
तभी सामान उठाए सजेधजे शोर मचाते बच्चों के झुंड ने प्रवेश किया. लहंगे, कोटी और गोटेकिनारी वाली चूनर में ठुमकती नन्ही सी विधा अलग ही चमक रही थी.
‘‘आज कितनी सुंदर लग रही है मेरी चुनमुन,’’ लाड़ में आ कर रश्मि ने उसे गोद में उठा लिया.
‘‘पता है आंटी, आज इस की…’’ शादाब कुछ बोलता, उस से पहले मनप्रीत ने उसे जोर से टोक दिया. कुछ बच्चे उंगली होंठों पर रख कर शादाब को चुप रहने का संकेत करने लगे.
रश्मि समझ गई कि जरूर कोई बात है, जो छिपाई जा रही है पर उस ने कुछ भी न कहा, क्योंकि वह जानती थी कि शाम तक इन के सारे भेद बिल्ंिडग का हर एक फ्लैट जान जाएगा. इन नन्हेमुन्नों के पेट में कोई बात आखिर पचेगी भी कब तक?
सभी बच्चे अपनीअपनी डलियाकंडिया उठाए खड़े थे. कुछ मोटामोटा सामान पहले ही छत पर पहुंचाया जा चुका था. रोल की हुई दरी उठाए खड़े 4 बच्चे चलोचलो का शोर मचा रहे थे. मुन्नू की टोकरी भी तैयार थी. लड्डू का डब्बा, मठरियों का डब्बा, पेपर प्लेट्स और पेपर नैपकिंस आदि सभी रखे थे. रश्मि ने टोकरी ऊपर तक पहुंचाने की पेशकश की, पर मुन्नू ने उसे बिलकुल ही नामंजूर कर दिया.
यद्यपि छत की बनावट इस प्रकार की थी कि कोई दुर्घटना न हो, फिर भी रश्मि ने बच्चों को हिदायतें दीं. सबक देना अभिभावकों का स्वभाव जो ठहरा.
‘‘दीवारों पर उचकना नहीं और न ही पानी की टंकी पर, न छत पर. पहुंचते ही लिफ्ट का दरवाजा और फैन बंद कर देना,’’ सुनीसुनाई हिदायतें बारबार सुन कर बच्चे परेशान हो गए थे.
‘‘हम सब देख लेंगे, आप चिंता न करो और आप ऊपर न आना.’’
बाहर बराबर लिफ्ट का दरवाजा धमाधम बज रहा था. ऊपर आनेजाने के चक्कर जारी थे. कुछ बच्चे अभी भी लिफ्ट के इंतजार में बाहर दरवाजे पर खड़े थे. मुन्नू भी उन में शामिल हो गया. तभी 10वीं मंजिल के रोशनजी ने सीढि़यों से उतरते हुए बच्चों को धमकाया, ‘‘क्या धमाचौकड़ी मचा रखी है. बंद करो यह तमाशा. कब से लिफ्ट के इंतजार में था, पर यहां तो तुम लोगों का आनाजाना ही बंद नहीं हो रहा है.’’
बच्चों को डांटते हुए रोशनजी सामने वाले अली साहब के फ्लैट में हो लिए. रश्मि दरवाजे की ओट में थी.
तभी लिफ्ट के वापस आते ही रेलपेल मच गई. वहां खड़े सभी बच्चे अपनीअपनी डलियाकंडिया संभाले लिफ्ट में समा गए.