अब तक की कथा :

ईश्वरानंद से मिल कर दिया को अच्छा नहीं लगा था. वह समझ नहीं पा रही थी कि धर्मानंद क्यों ईश्वरानंद का आदेश टाल नहीं पाता. ईश्वरानंद कोई सामूहिक गृहशांति यज्ञ करवा रहे थे. उसे फिर धर्मानंद के साथ उस यज्ञ में शामिल होने का आदेश मिलता है. बिना कोई विरोध किए दिया वहां चली गई. उस पूजापाठ के बनावटी माहौल में दिया का मन घुट रहा था परंतु धर्मानंद ने उसे बताया कि प्रसाद ग्रहण किए बिना वहां से निकलना संभव नहीं. वह दिया की मनोस्थिति समझ रहा था. अब आगे…

दिया बेचैन हुई जा रही थी.  जैसेतैसे कार्यक्रम समाप्ति की घोषणा हुई और भीड़ महाप्रसाद लेने के लिए दूसरी ओर लौन में सजी मेजों की ओर बढ़ने लगी. अचानक एक स्त्री ने आ कर धीरे से धर्मानंद के कान में कुछ कहा.

धर्मानंद अनमने से हो गए, ‘‘देर हो रही है.’’

‘‘लेकिन गुरुजी ने आप को अभी बुलाया है. आप के साथ में कोई दिया है, उसे भी बुलाया है.’’

एक प्रकार से आदेश दे कर वह स्त्री वहां से खिसक गई. दिया ने भी सब बातें सुन ली थीं. कहांकहां फंस जाती है वह. नहीं, उसे नहीं जाना.

‘‘आप हो कर आइए. मैं खाना खाती हूं.’’

‘‘दिया, प्लीज अभी तो चलिए. नहीं तो गड़बड़ हो जाएगी.’’

‘‘मैं कोई बंदी हूं उन की जो उन का और्डर मानना जरूरी है?’’ दिया की आवाज तीखी होने लगी तो धर्मानंद ने उसे समझाने की चेष्टा की.

‘‘मैं जानता हूं तुम उन की बंदी नहीं हो पर तुम नील और उस की मां की कैदी हो. वैसे मैं भी यहां एक तरह से कैद ही हूं. इस समय मैं जैसा कह रहा हूं वैसा करो दिया, प्लीज. हम दोनों ही मिल कर इस समस्या का हल ढूंढ़ेंगे.’’

धर्मानंद दिया का हाथ पकड़ कर पंडाल के अंदर ही अंदर 2-3 लौन क्रौस कर के दिया धर्मानंद के साथ गैराजनुमा हाल में पहुंची.

धर्मानंद ने एक दीवार पर लगी हुई एक बड़ी सी पेंटिंग के पास एक हाथ से उस सुनहरी सी बड़ी कील को घुमाया जिस पर पेंटिंग लगी हुई थी. अचानक बिना किसी आवाज के पेंटिंग दरवाजे में तबदील हो गई और धर्मानंद उस का हाथ पकड़े हुए उस दरवाजे में कैद हो गया. अंदर घुसते ही पेंटिंग बिना कुछ किए बिना आवाज के अपनेआप फिर से पहली पोजीशन पर चिपक सी गई. सामने ही ईश्वरानंदजी का विशाल विश्रामकक्ष था. ईश्वरानंदजी गाव तकिए के सहारे सुंदर से दीवान पर लेटे हुए थे, उन के सिरहाने एक स्त्री बैठी थी जो उन का सिर दबा रही थी तो एक उन के पैरों की ओर बैठी पैरों की मालिश कर रही थी.

‘‘आओ, धर्मानंद, आओ दिया, क्या बात है, आज देर कैसे हो गई? काफी देर से पहुंचे आप लोग? और हम से क्या मिले बिना जाने का प्रोग्राम था?’’दिया ने देखा दोनों स्त्रियां किसी मशीन की भांति चुपचाप माथे और पैरों की मालिश कर रही थीं.

‘‘अरे भई, जरा धर्मानंद और दिया को एकएक पैग तो बना कर दो. अभी तक खड़े हो दोनों, बैठो.’’

चुपचाप दोनों सामने वाले सोफे पर बैठ गए. दिया का दिल धकधक करने लगा. अब क्या प्रसाद के नाम पर पैग भी. नहीं, उस ने धर्मानंद का हाथ फिर से कस कर दबा दिया.अचानक न जाने किधर से उस दिन वाली अंगरेज स्त्री आ कर खड़ी हो गई और मुसकराते हुए पैग तैयार करने लगी.

‘‘हैलो धर्मानंद, हाय दिया,’’ उस ने दोनों को विश किया.

‘‘प्लीज रहने दें, हम तो बस महाप्रसाद लेने ही जा रहे थे,’’ धर्मानंद ने मना किया.

‘‘ऐसे कैसे चलेगा, धर्म, तुम्हें होता क्या जा रहा है? एकएक पैग लो यार. सिर फटा जा रहा है. सुबह से ये सब विधि करवाते हुए पूरे बदन में दर्द हो रहा है. दो, दिया को भी दो, धर्म को भी,’’ ईश्वरानंद ने फिर आदेश दिया.

‘‘गुरुजी, इस समय रहने दें और दिया तो लेती ही नहीं है.’’

‘‘अरे, लेती नहीं है तो क्या, आज ले लेगी, गुरुजी के साथ.’’

‘‘यहां आओ, दिया. उस दिन भी तुम से कुछ बात नहीं हो सकी,’’ ईश्वरानंद ने उसे अपने पास दीवान पर बैठने का इशारा किया.

दिया मानो सोफे के अंदर धंस जाएगी, इस प्रकार चिपक कर बैठी रही.

‘‘मैं किसी को खा नहीं जाता, दिया. देखो ये सब, कितने सालों से मेरे साथ हैं. आज तक तो किसी को कुछ नुकसान पहुंचाया नहीं है. डरती क्यों हो?’’

‘‘लाओ, बनाओ एकएक पैग और जाओ तुम लोग भी प्रसाद ले लो, फिर यहां आ जाना.’’

गुरुजी के आदेश पर दोनों स्त्रियां ऐसे उठ खड़ी हुईं मानो किसी ने उन का कोई स्विच दबा दिया हो, रोबोट की तरह. हाय, क्या है ये सब? मानो किसी ने हिप्नोटाइज कर रखा हो. दिया ने सुना हुआ था कि ऐसे लोग भी होते हैं जो आंखों में आंखेंडाल कर अपने वश में कर लेते थे. सो, दिया ईश्वरानंद से आंखें नहीं मिला रही थी. सब के सामने पैग घूम गए. सब से पहले ईश्वरानंद ने लिया, चीयर्स कह कर गिलास ऊपर की ओर उठाया, एक लंबा सा घूंट भर लिया और धर्मानंद को लेने का इशारा किया.

‘‘प्लीज, नो,’’ दिया जोर से बोली.

धर्मानंद का उठा हुआ हाथ वहीं पर रुक गया और ईश्वरानंद भी चौंक कर दिया को देखने लगे.

‘‘प्लीज, चलो धर्मानंद, आय एम वैरी मच अनकंफर्टेबल,’’ उस के मुंह से अचानक निकल गया.

‘‘क्यों घबरा रही हो, दिया? एक पैग लो तो सही, सब डर निकल जाएगा. लो,’’ ईश्वरानंद अपने स्थान से उठ कर दिया की ओर बढ़े तो दिया धर्मानंद के पीछे छिप गई.

‘‘गुरुदेव, दिया के लिए यह सब बिलकुल अलग है, नया. प्लीज, अभी रहने दें. बाद में जब यह कंफर्टेबल हो जाएगी…’’ धर्मानंद ने ईश्वरानंद की ओर अपनी एक आंख दबा दी.

ईश्वरानंद उस का इशारा समझ कर फिर से जा कर धप्प से अपने स्थान पर विराजमान हो गए. उन के चेहरे से लग रहा था कि वे दिया व धर्म के व्यवहार से क्षुब्ध हो उठे हैं. परंतु लाचारी थी. जबरदस्ती करने से बात बिगड़ सकती थी और वे बात बिगाड़ना नहीं चाहते थे.

‘‘दिया इतनी होशियार है, मैं तो कहता हूं कि यह अगर अपना हुलिया थोड़ा सा बदलने के लिए तैयार हो तो मैं इसे अच्छी तरह से ट्रेंड कर दूंगा और फिर देखना लोगों की लाइन लग जाएगी, इस के प्रवचन सुनने और इस के दर्शनों के लिए.

‘‘दिया, तुम्हारी पर्सनैलिटी में तो जादू है जो तुम नहीं जानतीं, मैं समझता हूं. तुम्हारे लिए सबकुछ नया है पर शुरू में तो सब के लिए नया ही होता है न?’’ ईश्वरानंद प्रयत्न करना नहीं छोड़ रहा था.

‘‘गुरुजी, आज दिया को जरा घुमा लाता हूं. बेचारी घर के अंदर रह कर बोर हो जाती है. आज आप भी थके हुए हैं. मैं फिर कभी इसेले कर आऊंगा.’’

‘‘ठीक है पर प्रसाद जरूर ले कर जाना. उस के साथ आने वाले दिनों के कार्यक्रम की लिस्ट भी मिलेगी.’’

बाहर जाने वाले लोगों के हाथ पर एक मुहर लगाई जा रही थी. उन लोगों के हाथों पर भी मुहर लगाई गई. जब वे अपना जमा किया हुआ सामान लेने पहुंचे तो उन्हें उन का सामान तभी दिया गया जब उन्होंने अपने हाथ दरबानों को दिखाए. साथही एक लिस्ट भी दी गई जिस पर ईश्वरानंदजी द्वारा संयोजित होने वाले कार्यक्रमों का विवरण था और ‘परमानंद सहज अनुभूति’ के सदस्यों का उन कार्यक्रमों में उपस्थित होना अनिवार्य था.शाम के 3:30 बजे थे. धर्मानंद ने गाड़ी निकाली और बाहर निकल कर दिया चारों ओर देख कर लंबीलंबी सांसें ले रही थी. घुटन से निकल मुक्त वातावरण में वह अपने फेफड़ों के भीतर पवित्र, शुद्ध, सात्विक सांसें भर लेना चाहती थी.  गार्डन पहुंच कर दोनों गाड़ी से उतरे. लौन पर बैठते ही सब से पहले दिया ने अपना पर्स  खोला. मोबाइल देखा, कितने सारे मिसकौल्स थे.

‘‘देखिए धर्म, इस में नील की मां के भी कई मिसकौल्स हैं,’’ दिया ने धर्मानंद की ओर मोबाइल बढ़ा दिया.

‘‘अरे, मैं भूल गया दियाजी, उन्होंने कहा था न कि पूजा खत्म होते ही मुझे रिंग दे देना. मैं अभी उन्हें कौल करता हूं.’’

‘‘क्या जरूरत है, धर्म?’’

‘‘जरूरत है, दिया. इन लोगों से ऐसे छुटकारा नहीं मिल सकता. इन्हें शीशे में उतारने के बाद ही कुछ हो सकेगा.’’

उस ने नील की मां को फोन किया और स्पीकर का बटन दबा दिया जिस से दिया भी सुन सके.

‘‘रुचिजी, पूजा हो गई है और हम वहां से निकल रहे हैं.’’

‘‘कैसी हुई पूजा, धर्मानंदजी? आप साथ ही में थे न? दिया ने कुछ गड़बड़ी तो नहीं की?’’

‘‘कैसी बात कर रही हैं आप? मेरे साथ थी वह, क्या कर सकती थी?’’

‘‘आप के पास नहीं है क्या दिया?’’

‘‘अगर होती तो आप से ऐसे खुल कर बात कैसे कर सकता था?’’

‘‘कहां गई है?’’

‘‘जरा वाशरूम तक. मैं ने ही कहा जरा हाथमुंह धो कर आएगी तो फ्रैश फील करेगी. वहां तो उस का दम घुट रहा था.’’

‘‘यही तो धर्मानंदजी, क्या करूं, मैं तो बड़ी आफत में पड़ गई हूं. उधर…आप के पास तो फोन आया होगा नील का?’’ वे कुछ घबराए स्वर में बोल रही थीं. जब नील से फोन पर बात होती थी तब भी वे इसी स्वर में बोलने लगती थीं.

‘‘नहीं, रुचिजी, क्या हुआ? नील का तो कोई फोन नहीं आया मेरे पास. सब ठीक तो है?’’ धर्म ने भी घबराने का नाटक किया.

‘‘अरे वह नैन्सी प्रैगनैंट हो गई है. बच्चे को गिराना भी नहीं चाहती.’’

‘‘तो पाल लेगी अपनेआप, सिंगल मदर तो होती ही हैं यहां.’’

‘‘नहीं, पर वह चाहती है कि मैं पालूं बच्चे को. अगर मैं बच्चा पालती हूं तो वह नील से शादी कर लेगी वरना…’’

‘‘तो इस में आप को क्या मिलेगा?’’

‘‘मिलने की बात तो छोडि़ए, धर्मजी. मुझे तो इस लड़के ने कहीं का नहीं रखा. दिया का क्या करूं मैं?’’

‘‘हां, यह तो सोचना पड़ेगा. मैं तो समझता हूं कि रुचिजी, अब बहुत हो गया, अब तो इस के घर वालों को खबर कर ही देनी चाहिए.’’

‘‘मरवाओगे क्या? वे तो वैसे ही यहां आने के लिए तैयार बैठे हैं…और आप को पता है उन की परिस्थिति क्या चल रही है? वे तो हमें फाड़ ही खाएंगे…’’

‘‘दिया आ रही है, रुचिजी. मैं बाद में आप से बात करूंगा.’’  

‘‘अरे कहीं मौलवौल में घुमाओ. बियाबान में क्या करेगी? कुछ खरीदना चाहे तो दिलवा देना. आज उसे पैसे नहीं दिए. वैसे पहले के भी होंगे ही उस के पर्स में, पूछ लेना…’’ नील की मां की नाटकीय आवाज सुनाई दी.

‘‘हां जी, देर हो जाए तो चिंता मत करिएगा.’’

‘‘चिंताविंता काहे की, मेरी तो मुसीबत बन गई है. समझ में नहीं आता और क्या पूजापाठ करवाऊं? ईश्वरानंदजी से भी मशवरा कर लेना.’’

‘‘हां जी-हां जी, जरूर. अभी रखता हूं, नमस्ते.’’

मोबाइल बंद कर के दिया की आंखों में आंखें डाल कर धर्मानंद बोला, ‘‘आई बात कुछ समझ में?’’

‘‘आई भी और नहीं भी आई, धर्मजी. जीवन कैसे मेरे प्रति इतना क्रूर हो सकता है? मेरा क्या कुसूर है? मैं कांप जाती हूं यह सोच कर कि मेरे घर वालों की क्या दशा होगी लेकिन मैं उन्हें सचाई बताने से भी डरती हूं. क्या करूं?’’

‘‘दिया, दरअसल मैं खुद यहां से निकल भागना चाहता हूं. मगर मैं यहां एक जगह फंसा हुआ हूं,’’ वह चुप हो गया.

दिया का दिल फिर धकधक करने लगा. कहीं कुछ उलटासीधा तो कर के नहीं बैठे हैं ये.

‘‘नहीं, मैं ने कुछ गलत नहीं किया है. मैं दरअसल यहां एमबीए कर रहा हूं और सैटल होना चाहता हूं पर अगर ईश्वरानंद को पता चल जाएगा तो वे मेरा पत्ता साफ करवा देंगे.’’

‘‘क्यों? उन्हें क्या तकलीफ है?’’ दिया ईश्वरानंद के नाम से चिढ़ी बैठी थी.

‘‘तकलीफ यह है कि मैं उन के बहुत सारे रहस्यों से वाकिफ हूं और अगर मैं ने उन का साथ छोड़ दिया तो उन्हें डर है कि मैं कहीं उन की पोलपट्टी न खोल दूं…’’

‘‘क्या आप को यह नहीं लगता कि ये सब गलत है?’’

‘‘हां, खूब लगता है.’’

‘‘फिर भी आप इन लोगों के साथी बने हुए हैं?’’

‘‘बस, इस में से निकलने का रास्ता ढूंढ़ रहा हूं.’’

‘‘सच बताइए, धर्म, मेरा पासपोर्ट आप के पास है न?’’

दिया ने धर्म पर अचानक ही अटैक कर दिया. धर्म का चेहरा उतर गया पर फिर संभल कर बोला, ‘‘हां, मेरे पास है पर आप को कैसे पता चला?’’

‘‘मैं ने आप की और नील की मां की सारी बात सुन ली थी उस दिन मंदिर में,’’ दिया ने सब सचसच कह दिया.

‘‘और…आप उस दिन से मुझे बरदाश्त कर रही हैं?’’

‘‘मैं तो नील और उस की मां को भी बरदाश्त कर रही हूं, धर्म. मैं इन सब दांवपेचों को न तो जानती थी और न ही समझती थी परंतु मेरी परिस्थिति ने मुझे जबरदस्ती इन सब पचड़ों में डाल दिया.’’

‘‘बहुत शर्मिंदा हूं मैं, दिया. पर मैं भी आप की तरह ही हूं. मुझे भी उछाला जा रहा है. एक फुटबाल सा बन गया हूं मैं. सच में ऊब गया हूं.’’

धर्म की आंखों में आंसू भरे हुए थे. दिया को लगा वह सच कह रहा था.

‘‘मैं नील के घर से भागना चाहती हूं, धर्म,’’ दिया ने अपने मन की व्यथा धर्म के समक्ष रख दी.

‘‘कहां जाओगी भाग कर?’’

‘‘नहीं मालूम, कुछ नहीं पता मुझे. वहां मेरा दम घुटता है. मैं इंडिया वापस जाना चाहती हूं,’’ दिया बिलखबिलख कर रोने लगी, ‘‘आप नहीं जानते, धर्म, मैं किस फैमिली से बिलौंग करती हूं. और मेरी ही वजह से मेरे पापा का क्या हाल हुआ है?’’

‘‘मैं सब जानता हूं, दिया. इनफैक्ट, मुझे आप के घर में हुई एकएक दुर्घटना का पता है, यह भी कि नील व उस की मां भी ये सब जानते हैं.’’

‘‘क्या? क्या जानते हैं ये लोग? क्या इन्हें मालूम है कि मेरे पापा की…’’ दिया चकरा गई.

‘‘हां, इन्हें सब पता है और इन्हें यह सब भी पता है जो आप को नहीं मालूम,’’ धर्म ने सपाट स्वर में कहा.

‘‘क्या, क्या नहीं पता है मुझे?’’ दिया अधीर हो उठी थी.

‘‘अब मैं आप से कुछ नहीं छिपा पाऊंगा, दिया. मेरा मन वैसे ही मुझे कचोट रहा है. मैं भी तो इस पाप में भागीदार हूं.’’

‘‘पर आप तो उस दिन नील की मां से कह रहे थे कि आप यहां थे नहीं, तब किसी रवि ने मेरी जन्मपत्री मिलाई थी.’’

‘‘ठीक कह रहा था, दिया. पर सब से ऊपर तो ईश्वरानंद बौस हैं न?’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि जब तक उस की मुहर नहीं लग जाती तब तक बात आगे कहां बढ़ती है. रवि भी तो इन का ही मोहरा है. उस ने भी जो किया या बताया होगा, ईश्वरानंदजी के आदेश पर ही न.’’

‘‘पर आप तो उस दिन नील की मां से कह रहे थे कि रवि आप का चेला है. आप उसे यह विद्या सिखा रहे हैं?’’

दिया चाहती थी कि जितनी जल्दी हो सके उसे ऐसा रास्ता दिखाई दे जाए जिस से वह इस अंधेरी खाई से निकल सके.

‘‘अच्छा, एक बात बताइए, धर्म. कहते हैं कि मेरे ग्रह नील पर बहुत भारी हैं और यदि वह मुझ से संबंध बनाता है तो बरबाद हो जाएगा. पर नैन्सी से उस के शारीरिक संबंध ग्रह देखने के बाद बने हैं क्या?’’

‘‘क्या बच्चों जैसी बात करती हैं? उस जरमन लड़की से वह ग्रह देखने के बाद संबंध स्थापित करता क्या?’’

‘‘तो उसे कैसे परमिशन दे दी उस की मां ने? बच्चों जैसी बात नहीं, धर्म, मूर्खों जैसी बात है. जिस लड़की को पूरी तरह ठोकपीट कर ढोलनगाड़े बजा कर लाए उस के ग्रहों के डर से अपने बेटे को बचा कर रखा जा रहा है और जिस लड़की के शायद बाप का भी पता न हो, वह नील की सर्वस्व है. क्या तमाशा है, धर्म?’’

‘‘हां, तमाशा ही तो है, दिया. तुम वैसे भी सोचो, पूरी दुनिया में ग्रह मिलाए जाते हैं क्या? विदेशों में तो वैसे ही संबंध बन जाते हैं, फिर भी यहां पर इस अंधविश्वास की चिंगारी जल रही है. तुम ने देखा, कितने गोरे थे ईश्वरानंद के प्रोग्राम में. यह तमाशा नहीं तो फिर क्या है?’’

दिया बोली, ‘‘धर्म, क्या मुझे पता चल सकता है कि मेरे घरवाले कैसे हैं? मैं समझती थी कि नील व उस की मां इस बात से बेखबर हैं कि मेरी फैमिली पर क्या बीती है.’’

‘‘नहींनहीं, वे लोग सबकुछ जानते हैं, दिया. इनफैक्ट, एकएक घटना. एक बात सुन कर तुम चौंक जाओगी, समझ में नहीं आता तुम्हें बताऊं या नहीं?’’

‘‘अब सबकुछ तो पता है. कुछ बताओगे भी तो क्या होगा. हां, शायद इन लोगों को समझने में मुझे मदद मिल सके,’’ दिया ने धीरे से कहा.

‘‘मैं जानता हूं तुम्हारे लिए कंट्रोल करना मुश्किल हो जाएगा पर न जाने क्यों मैं तुम से अब कुछ भी छिपाना नहीं चाहता.’’

‘‘तो बता दो न, धर्म. क्यों अपने और मेरे लिए बेकार का सिरदर्द रखते हो. एक बार कह कर खत्म कर दो बात,’’ दिया पूरा सच जानने के लिए बेचैन हो रही थी.

अपनेआप को संयत करते हुए धर्म ने कहा, ‘‘दिया, यह तुम्हारी शादी का जो जाल है न, वह भी ईश्वरानंद का ही फैलाया हुआ है.’’

‘‘क्या,’’ दिया मानो कहीं ऊंचाई से नीचे खाई में गिर पड़ी, ‘‘यह कैसे हो सकता है?’’ उस के मुख से ऐसी आवाज निकली मानो जान ही निकली जा रही हो.

‘‘दिया, इतना कुछ देखनेसुनने, सहने के बाद भी तुम कितनी भोली हो. इस दुनिया में सबकुछ हो सकता है, सबकुछ. यह रिश्ता ईश्वरानंद का ही भेजा हुआ था. यह एक पासा फेंकने जैसी बात है. उन्होंने पासा फिंकवाया और तुम्हारी दादी लपेटे में आ गईं. वह जो तुम्हें किसी शादी में बिचौलिया मिला था न.’’

‘‘बिचौलिया? मतलब?’’ दिया का दम निकला जा रहा था.

‘‘बिचौलिया यानी बीच का आदमी. जो तुम्हारी दादी के पास तुम्हारे रिश्ते की बात ले कर आया था.’’

‘‘अच्छा, तो?’’

‘‘तो यह कि वह ईश्वरानंद का ही आदमी था. तुम्हें आश्चर्य होगा कि वह आदमी ईश्वरानंद के लिए इसी प्रकार काम करता है, जिस के लिए उस को खूब  पैसा मिलता है. न जाने कितनी लड़कियां लाया है वह हिंदुस्तान से और वह केवल ईश्वरानंद का ही नहीं, न जाने ऐसे कितने दूसरे लोगों के लिए काम करता है.’’

दिया की आंखें फटी की फटी रह गईं. ऐसा भी हो सकता है क्या? जीवन में इस प्रकार की धोखाधड़ी. दिया पसीने से तरबतर अपना मुंह पोंछने लगी.

‘‘मैं तुम्हें डराना नहीं चाहता पर है यह सच. तुम्हें मंदिर में एक खूब मोटी सी औरत मिली थी न जिस से रुचिजी बहुत बातें करती रहती हैं. क्या नाम है उस का…हां…शिक्षा…शिक्षा के लिए वह आदमी 3 लड़कियां लाया है इंडिया से.’’

‘‘क्यों? शिक्षा भी ये सब धंधे करती है क्या?’’ दिया के मुंह से घबराई हुई आवाज निकली.

‘‘नहीं, शिक्षा धंधा तो नहीं करती. शिक्षा का बेटा डायबिटिक है, वैसे वह इंपोटैंट भी है. मालूम है, उस ने अपने बेटे की 3 शादियां करवा दी हैं?’’

‘‘3 शादियां…? क्या तीनों बहुएं उसी घर में रहती हैं…’’ अचानक दिया पूछ बैठी.

‘‘नहीं, एक शादी होती है तो बहू पर घर का सारा काम डाल दिया जाता है. बहुत पैसे वाले लोग हैं ये. बहुत बड़ा घर है. वैसे तो 3 घर हैं इन के पर जिस में रहते हैं वह बहुत बड़ा घर है. 60 वर्षों से भी पहले इन की पीढ़ी यहां पर आई थी और यहीं इन के दादा लोग बस गए थे. इन के घर की औरतें पढ़ीलिखी नहीं हैं. बस, यहां रहते हैं इतना ही…अब जब लड़के की शादी होती है, बहू आती है तो वह लड़के से किसी भी प्रकार संतुष्ट नहीं हो पाती. फिर जब तक उस के पक्के होने की मुहर लगती है वह तब तक ही उस के घर रहती है. जैसे ही उसे इस देश में रहने की परमिशन मिली वह उन के घर से भाग खड़ी होती है और कहीं भी मजदूरी कर के अपनेआप को सैटल कर लेती है. इस तरह से शिक्षा के लड़के की 3 शादियां हुईं और ये सब काम उसी आदमी के हैं जिस ने तुम्हारा रिश्ता पक्का कराया था.’’

‘‘तो लड़की यहां कैसे आती है, उस का वीजा वगैरह?’’ दिया ने पूछा.

‘‘यह सब तो इन के बाएं हाथ का खेल है. पूरा एक रैकेट है दिया, जिस में कोई अपनेआप आ फंसता है तो कोई ग्रहों और ज्योतिष के चक्कर में फंसा लिया जाता है.’’

‘‘तब तो मैं बहुत बुरी तरह उलझी हुई हूं. अगर मैं किसी से बात करती हूं तो मुझ पर और अंकुश लग जाएंगे?’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं है. यहां बहुत से ‘हैल्पेज होम्स’ भी हैं. ‘ओल्ड ऐज होम्स’ की तरह, पुलिस में भी इन्फौर्म कर सकते हैं और ऐंबैसी से भी हैल्प मिल सकती है. बस, बात इतनी सी है कि हमें थोड़ा इंतजार करना होगा.’’

‘‘क्यों? क्यों करना होगा इंतजार? धर्म अगर आप मुझे सच में प्रोटैक्ट करना चाहते हैं तो प्लीज मुझे जल्दी से जल्दी इस गंद से निकलने में हैल्प करिए,’’ दिया उतावली सी हुई जा रही थी.

‘‘दिया, मैं चाहता हूं कि आप के साथ मैं भी इस दलदल से निकल भागूं जबकि मैं जानता हूं कि ईश्वरानंदजी मुझे इतनी आसानी से निकलने नहीं देंगे. उन का कोई न कोई आदमी हम पर नजर रखे ही होगा.’’

दिया घबरा कर इधरउधर देखने लगी तो धर्म हंस पड़ा.

‘‘अरे, इतना आसान थोड़े ही है यह पता लगाना. यह तो पूरा चैनल है जो हर तरफ फैला हुआ है. दुनियाभर में चलता है इन का व्यापार. इतनी आसानी से आप को जाने देंगे वे लोग? इन का तो कोई मकसद भी सौल्व नहीं हुआ है अब तक.’’

‘‘तब फिर कैसे?’’ दिया ने हकला कर पूछा और रूमाल से अपना पसीना पोंछने लगी.

‘‘थोड़ा पेशेंस रखना होगा और कुछ दिन. मैं चाहता हूं कि मेरा एमबीए भी पूरा हो जाए और किसी को खबर हुए बिना हम किसी न किसी तरह यहां से निकल भागें.’’

‘‘यह कोई सपना देख रहे हैं क्या, धर्म?’’

‘‘नहीं, सपना नहीं है. जब यह सपना नहीं है कि आप इस कैद में आ कर फंसी हुई हैं तो वह भी केवल सपना नहीं कि आप इस कैद से छूट सकती हैं. हां, मुश्किलें तो बहुत आएंगी, इस में शक नहीं है.’’

धर्म के साथ रहने पर समय का पता ही नहीं चलता था. युवा उम्र में वैसे भी स्वाभाविक रूप से विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण होता है. उस पर, दिया की स्थिति तो बेपेंदी के लोटे की तरह हो गई थी. इस इकलौते सहारे में ही वह सबकुछ ढूंढ़नेलगी थी. केवल 2 बार के मिलने से ही उसे यह बात ठीक प्रकार समझ में आ गई थी कि धर्म भीतर से बहुरूपिया नहीं है बल्कि ऐसी परिस्थितियों में उलझा हुआ है कि वह भी उन में फंस कर अपने पंख फड़फड़ा रहा है. जब 2 लोग एक सी मुसीबत में घिर जाते हैं तो उन की समस्या भी एक हो जाती है और विचार भी एक ही दिशा में चलने लगते हैं.

‘‘धर्म, मुझे नहीं जाना नील के घर,’’ अचानक ही दिया ने यह बचपने का सा विचार धर्म के समक्ष परोस दिया.

धर्म का मुंह चलतेचलते रुक गया, ‘‘तो कहां जाओगी?’’

‘‘कहीं भी, आप के साथ.’’

‘‘मेरे साथ?’’

‘‘हां, क्यों, आप मुझे अपने घर पर नहीं रख सकते?’’

‘‘नहीं, वह बात नहीं है, दिया, पर यह कैसे संभव है? थोड़ा पेशेंस रखो,’’ धर्म ने दिया को समझाने का प्रयास किया.

‘‘कहां से रखूं पेशेंस? मुझ में पेशेंस है ही नहीं अब, कहां से लाऊं?’’

‘‘हम ऐसे हार नहीं मान सकते, दिया. मुझे कुछ टाइम दो सोचने का,’’ धर्म उस को पकड़ कर फिर से लौन में जा बैठा.

‘‘धर्म, मैं एक उलझन से निकलती हूं तो दूसरी में फंस जाती हूं. मुझे अभी आप ने बताया कि ईश्वरानंद ने ही मुझे फंसाया है पर जब पिछली बार आप के साथ उन से मिली थी, तब तो वे पूछ रहे थे कि यह दिया कौन?’’

‘‘दिया, आप को अब तक यह बात समझ में नहीं आई कि ये सब नाटक है. तब अगर वे बता देते तो आप पर अपना प्रभाव कैसे डाल पाते? आप को तो अपने झांसे में लेना ही था न उन्हें? फिर रुचिजी की और उन की बहुत पुरानी दोस्ती है. पिछली बार तक तो वे, इन के यहां आने पर, इन के हर प्रोग्राम में आती थीं. लगता है इस बार वे जानबूझ कर नहीं आना चाहतीं. शायद, कहीं पोल न खुल जाए, इसलिए.’’

‘‘वह तो कुछ पैरों के दर्द के कारण…’’ दिया बोली तो उस की बात को बीच में काटते हुए धर्म बोला, ‘‘पैरों का दर्दवर्द सब ड्रामा है, दिया. कुछ तो कहेंगी और करेंगी न? और हां…आप अपनेआप को थोड़ा कंट्रोल में रखो जिस से और मुश्किलें न बढ़ें तभी कोई रास्ता निकल सकेगा वरना…’’

तभी धर्म के मोबाइल की घंटी बजी.

-क्रमश:

 

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