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सुलभा का एक हाथ अधखुले किवाड़ पर था. वह उसी स्थान पर लकवा मारे मनुष्य की तरह जड़ सी हो गईर् थी. शरीर व मस्तिष्क दोनों पर ही बेहोशी सी तारी हो गईर् थी मानो. उसे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था. क्या जो कुछ उस ने सुना वह सच है? जगदीश इस तरह की बात कर सकता है? जगदीश, उस का दीशू, जिसे वह बचपन से जानती है, जिस के विषय में उसे विश्वास था कि वह उस की नसनस से परिचित है...वह?

आगे क्या बातें हुईं वह उस के जड़ हो चुके कानों ने नहीं सुनीं. थोड़ी देर बाद जब उस के दोस्त की आवाज कान में पड़ी, ‘‘चलता हूं यार, तेरे रंग में भंग नहीं डालूंगा,’’ तो मानो उसे होश आया.

अधखुले कपाट को धीरे से बंद कर के अपनी चुन्नी से सिर और मुंह को अच्छी तरह ढक कर वह शीघ्रता से मुड़ी और लगभग दौड़ती हुई बगल में अपने घर के फाटक से अंदर प्रवेश कर के एक झाड़ी की आड़ में खड़ी हो गई.

जगदीश के दोस्त ने सड़क पार खड़ी अपनी कार का दरवाजा खोला, अंगूठा ऊपर कर घर के दरवाजे पर खड़े जगदीश को इशारा सा किया और कार स्टार्ट कर निकल गया.

जगदीश के अधिकांश मित्रों को वह पहचानती है, पर यह शायद कोईर् नया है. भाभी बता रही थीं, आजकल उस की बड़ेबड़ों से मित्रता है. इधर कंस्ट्रक्शन में काफी कमाई कर ली है उस ने.

जगदीश अपने घर के सदर दरवाजे में दोनों हाथ सीने पर बांधे सीधा तन कर खड़ा था. सुलभा कुछ क्षण उस की इस उम्र में भी सुंदर, सुगठित ऊंचीलंबी काया को देखती रही, फिर मुंह फेर लिया. आश्चर्य...? उसे जगदीश से घृणा या वितृष्णा का अनुभव नहीं हो रहा था. वह समझ नहीं पा रही थी कि इसे निराशा कहे या विश्वास की टूटन या मन में स्थापित किसी प्रिय सुपरिचित मूर्ति का खंडित होना. वास्तव में उस के मस्तिष्क की जड़ता उसे कुछ अनुभव करने ही नहीं दे रही थी. कुछ भी सोचनेसमझने में असमर्थ वह थोड़ी देर यों ही खड़ी रही.

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