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सुलभा हंस पड़ी थी. ‘बुरा तो रुक्मिणी को लगना चाहिए, नहीं?’

बचपन से दोनों परिवारों को उन में अभिन्नता देखते आने के कारण उन का आपसी व्यवहार स्वाभाविक ही लगता था. पर दूसरे परिवेश से आई उषा को शायद उन का व्यवहार असामान्य लगता है. सुलभा ने कई बार यह महसूस किया है, हालांकि इस बारे में गंभीरता से नहीं सोचा.

पर, अपने खुले स्वभाव के कारण विकास ने कभी अन्यथा नहीं लिया जबकि सुलभा ने देखा कि मिलने पर विकास जब जगदीश की पीठ पर धौल जमा कर ‘और साले साहब, क्या हालचाल हैं’  कहते हैं, ‘नवाजिश है आप की’ कहते जगदीश मन ही मन कसमसा जाता, हालांकि ऊपर से हंसता रहता है.

भाभी नहाने गई थीं. सुलभा और जगदीश बैठे बातें कर रहे थे. एकाएक किसी बात का रिस्पौंस न पा कर सुलभा ने जगदीश की ओर देखा, लगा जैसे उस ने सुलभा की बात सुनी ही न हो. वह जाने कैसी नजरों से उसे एकटक देख रहा था.

सुलभा कुछ सकुचा कर उठने को हुई कि जगदीश ने उस का हाथ पकड़ लिया, ‘‘सुनो सुली, मेरी बात ध्यान से सुनो और प्लीज नाराज मत होना. मैं...मैं तुम्हें...तुम मेरी बात समझ रही हो न. देखो इधर मेरी आंखों में देखो सुली, क्या तुम्हें कुछ भी दिखाई नहीं देता? मैं...मैं तुम्हारे लिए वर्षों से तड़प रहा हूं. क्या तुम सचमुच कुछ भी नहीं समझतीं, या...’’

सुलभा उत्तेजित हो कर कुछ कहने को हुई, तो वह उस के मुंह पर हाथ रख कर बोला, ‘‘नहीं, पहले तुम मेरी पूरी बात सुन लो, सुली, अभी कुछ मत कहो. अच्छी तरह सोच लो. मैं आज रात 8 बजे के बाद अपने घर में तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगा, प्लीज.’’ आंखों में आंसू भर कर उस ने हाथ जोड़ दिए. फिर बोला, ‘‘देखो, यह मेरी अंतिम इच्छा है. एक बार पूरी कर दो. इस के बाद मैं तुम से कुछ नहीं मांगूंगा.

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