हमारा जमाना अभी बहुत पीछे नहीं छूटा है. फकत 50-60 साल पीछे चले जाओ. आप को पुराने फैशन के नैरो या बेलबौटम पतलूनशर्ट, घाघराचोली धारी युवकयुवतियां यानी ‘प्री जींस’ युग के जीव मिल जाएंगे. ये लोग प्रेम के दीवाने होते थे. कालेज की सीढि़यों पर पांव रखे नहीं कि स्टेटस सिंबल बनाए रखने के लिए एक अदद ‘पे्रमी’ या ‘प्रेमिका’ की जरूरत महसूस होने लगती थी. जो लोग ‘स्टेटस’ की पहुंच से दूर रह जाते थे या स्टेटस पा सकने में, किसी तकनीकी, आर्थिक व सामाजिक कारण विशेष के चलते अक्षम होते थे, वे ‘एकतरफा मुहब्बत’ का रोग लगा बैठते थे.

कुल मिला कर मुहब्बत करनी है, ‘चाहे मां रूठे या बाबा…’ वाले दिन थे वे.

‘… मैं नू यारा इश्क होंदा…’ ‘कुड़ी’ को पता हो या न हो या सालों बाद पता चले अपनी तरफ  से हम ने शुरुआत कर दी थी. हम मुहब्बत के आलम में डूबे नियमित रूप से उन की गली के दोचार चक्कर लगा आते थे या जहांजहां उन के पाए जाने की संभावनाएं होती थीं वहांवहां चक्कर लगा लेते थे. उन दिनों किसी बात की जल्दी होती कहां थी. ज्यादातर एकतरफ ा प्रेम करने वालों से महल्ला, देहात, शहर ऐसे भरे रहते थे जैसे इन दिनों साइबर कैफे में भीड़ होती है. वे ‘एक तरफा प्रेम’ को भी आजीवन न भुलाने की कसम खाए हुए संजीदा किस्म के लोग होते थे. सामाजिक प्राणी की मान्यता मिलने के  बाद भी उन्हें लगता था, बीवी है, बच्चे हैं मगर संतुष्टि नहीं है.

‘प्यार का गठिया’ कभीकभी सालता तो गमगीन हुए जाते. उन्हें जीने के लिए एक ‘कसक’ की जरूरत शिद्दत से महसूस हुआ करती थी. काश, एक ‘कसक’ दिल में रहे तो मजा आ जाए. ‘कसक’ वालों के लिए एक से एक गाने या यों कहें फि ल्मी गानों का भंडार भरा पड़ा है. यह कसक ही पूरी फि ल्म इंडस्ट्री की धुरी हुआ करती थी और टिकट खिड़की पर अच्छा रिस्पौंस दिलाती थी. जो शख्श मुश्किल से कालेज की फीस का जुगाड़ कर पाता था, मुहब्बत किस बूते करता भला. इसीलिए मुहब्बत के एकतरफा कसक वाले किस्से, ज्यादा हुआ करते थे.

अभी तक किसी शोध कराने वाले गाइड ने इस विषय  को छुआ या छेड़ा नहीं है. शोध करवाने वाले गाइड डाक्टर साहब को इस विषय में मैं कुछ क्लू दे देता हूं, जिस में वे आगे पैदा होने वाले स्कौलर्स को नएनए विषय में शोध के लिए प्रेरित कर सकते हैं. मसलन, ‘भारत में एकतरफा मुहब्बत के किस्से और सामाजिक परिवेश’, ‘कालेज में इश्क करने के हजार नायाब नुसखे’, ‘असफ ल प्रेमियों के40 साल बाद की जिंदगी, प्रेम के प्रति उन का नजरिया’, ‘वर्तमान में प्रेमीप्रेमिकाओं पर फि ल्मों का बढ़ता प्रभाव’ और ‘सामाजिक दायित्व और निर्वाह’, ‘राजनीतिक’ उथलपुथल में प्रेम व ‘समसामयिक दृष्टिकोण पर एक नजर’ ‘मोबाइल, इंटरनैट, एसएमएस के जमाने में प्रेम करने के तरीकों में बदलाव.’

‘क्या प्रेमपत्र आज के जमाने में संग्रहणीय दस्तावेज हो गए हैं, खोज और आंकड़े…’ आदि विषयों की फेहरिस्त लंबी है, सविस्तार जानने के इच्छुक शोधार्थी बाद में संपर्क साध सकते हैं. खैर जाने भी दो. जिसे जो खोजबीन करनी है वह अपना दुखड़ा अलग पाले, अपना राग अलग अलापे… बात लेदे कर फ ीस का जुगाड़ करने वाले छात्रों की हो रही थी.

हमारे साथ भी, कमोबेश मामला इसी के  आसपास का था. इतना जरूर था कि हम पढ़ाकू होने की कैटेगरी में थे, जिस कारण साथ पढ़ने वाली जो बाला हम से नोट्स मांगने आ जाती, उसी के इर्दगिर्द पूरे महीने भर की ‘इकतरफ ा वाली’ कवायद चालू हो जाती और यही अमिट पूंजी बन हमारे दिल की तिजोरी में कैद होने लगती. सपनों में उन के चाहे गए नोट्स की बनावट तरहतरह से, रहरह कर बनतीबिगड़ती रहती. किताबें, गाइड, लाइब्रेरी खंगालने में दिन बीत जाते. नोट्स बनाने के नएनए तरीके नएनए खयालोंविचारों का जुगाड़ करते और फि र तरहतरह के नोट्स बनातेबनाते हालत ऐसी हो जाती कि पूरा का पूरा चैप्टर हमें मुंहजबानी याद हो जाता. यकीन मानिए, किसी की एवज में परीक्षा देने का चलन होता तो हमारी कमाई का आसान जरिया जरूर निकल आता.

इतना जरूर होता कि हमारी किताबी पकड़ की बदौलत ऐग्जाम के दिनों में हमारी ‘पूछपरख’ बढ़ जाती. परीक्षा हौल में सवाल हल करते हुए स्टूडैंट को बाहर से जवाब मुहैया कराने का काम मिल जाता. परीक्षा के दिनों में, जब हमारी कक्षा के तमाम छात्र पढ़ने से पल भर का समय नहीं निकल पाते थे, तो हमारी स्थिति उलट हुआ करती थी. हम रात को सैकंड शो देख कर भी अगले दिन परीक्षा हौल में जाने के न केवल काबिल बने रहते बल्कि सब से अव्वल पेपर इनविजिलेटर को सौंप कर निकल जाते. परिणाम भी हमारे पक्ष में अभीअभी गए इलैक्शन के माफि क आता, जिस में आगे, ये दिल मांगे मोर कहने की गुंजाइश नहीं रहती.

एकतरफा मुहब्बत को हर किसी ने धीरेधीरे मोम की तरह पिघलते देखा है. सब देवदासमजनुओं का एक अंजाम. उस ने कालेज की पढ़ाई कब खत्म की. उधर वाली पार्टी कब डोली चढ़ गई. कब उन के बच्चेकच्चे हो गए, कब समय की सुनामी आई और क्या बहा ले गई पता ही नहीं चला. इन्हीं में से जब कोई किसी शौपिंग मौल में अचानक आमनेसामने हो जाती है तो एक असहज असमंजस की स्थिति पैदा हो जाती है. वह बड़े मजे से अपने बेटे या बेटी से परिचय कराती है, ‘बेटे, ये हैं तुम्हारे अंकल, नमस्ते करो…’

उस समय सारे के सारे नोट्स, जो उन के लिए, रातरात भर जाग कर लिखे, आंखों के सामने घूम जाते हैं. दिल में एक कसक सी उठती है. मगर तुरंत बाद एक ताजा हवा एक नई खुशबू का एहसास दिलाती हुई फि र भीतर तक समा जाती है, जो उस के बदन ने अभीअभी छोड़ी है.

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