दूर से ही खाना सूंघ कर सटीक परिणाम बताने वाले मुफ्तखोर गिरधारी लालजी दफ्तर में ‘कुत्ते’ की उपाधि से नवाजे गए हैं. कालोनी में नया शिकार जान कर उन्होंने जब हमारे घर डेरा डाला तो जनाब पूछिए मत कि कैसे पीछा छुड़ाया.
दफ्तर से लौटने के बाद मैं ड्राइंगरूम जमाने में व्यस्त था और मेरी पत्नी प्रभा मेरे लिए नाश्ता बनाने में. 3 रोज पहले ही हम इस नई कालोनी में शिफ्ट हुए थे. अचानक दरवाजे की घंटी बजी. मैं ने दरवाजा खोला तो देखा एक सज्जन खड़े थे. मुझे देखते ही बोले, ‘‘नमस्ते, शर्माजी.’’
मैं ने उन के अभिवादन का जवाब दिया और पूछा, ‘‘मैं ने आप को पहचाना नहीं. बोलिए मैं आप की क्या सेवा कर सकता हूं?’’
‘‘सेवा तो मैं करने आया हूं आप की,’’ वे बोले, ‘‘वैसे मुझे गिरधारी लाल कहते हैं. आप की कालोनी में ही, आप से 3 ब्लौक दूर रहता हूं. सोचा, आप से मुलाकात कर लूं. आप नए आए हैं. मेरे लायक कोई काम हो तो बेखटके बता दीजिएगा. कालोनी में तो ज्यादा लोग ऐसे हैं जिन्हें सिर्फ अपने से मतलब है.’’
मैं उन की बातों से बहुत प्रभावित हुआ क्योंकि वे पहले व्यक्ति थे जो हम से किसी काम के लिए पूछने आए थे. मैं ने उन्हें अंदर बुलाया, आदर से सोफे पर बिठाया. हम दोनों ने एकदूसरे का विस्तार से परिचय लिया और दिया. कुछ देर बाद उन्होंने पूछा, ‘‘भाभीजी नहीं दिख रही हैं, लगता है पकौड़े बना रही हैं?’’
वास्तव में प्रभा मेरे लिए नाश्ते में पकौड़े ही बना रही थी और किचन में थी. मैं ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘अरे गिरधारी लालजी, आप ने एकदम सही अनुमान लगाया, मेरी पत्नी मेरे लिए पकौड़े ही बना रही है. आप भी खा कर जाइएगा. पर आप को कैसे मालूम हुआ?’’
‘‘अरे साहब, मेरी यह नाक कुछ ज्यादा ही तेज है, डेढ़ किलोमीटर से सूंघ के बता सकता हूं कि किस के यहां क्या बन रहा है. दफ्तर में तो लोग मुझे कुत्ता बोलते हैं. अकसर मुझ से शर्त लगाते हैं और हार जाते हैं कि उस दिन उन के टिफिन में खाने के लिए क्या है.’’
मैं उन की बात सुन कर हंस दिया. उतने में ही प्रभा चाय और पकौड़े ले कर आई, अंदर से ही उस ने देख लिया था कि कोई और भी मेरे साथ बैठा है. पत्नी से उन का परिचय कराया. थोड़ी देर में ही वे हम दोनों से घुलमिल गए और बातोंबातों में 3 प्लेट पकौड़े सटक लिए. फिर वे मेरी पत्नी की तरफ मुड़ कर बोले, ‘‘वाह, भाभी, आप के हाथ में तो जादू है. पर बुरा नहीं मानना, यदि आप मेरी पत्नी के हाथों का बना खाना खा लें तो आप उन का भी लोहा मान लेंगी. भाई, आप दोनों को हमारे घर खाने पर आना पड़ेगा. मैं तो कहता हूं कि आज ही आप बता दीजिए कि आप लोग कब हमारे घर आ सकते हैं.’’
मैं ने उचित नहीं समझा कि इतनी जल्दी हम खाने पर पहुंच जाएं, इसलिए कह दिया, ‘‘अरे, गिरधारी लालजी, इतनी तकल्लुफ की क्या जरूरत है. थोड़ा घर का सामान जम जाए तो हम आप के घर मिलने आएंगे, खानावाना तो होता रहेगा.’’
‘‘नहीं, ऐसे नहीं चलेगा. आप को खाने पर तो आना ही पड़ेगा. मैं रोज आप के पास निमंत्रण के लिए आऊंगा.’’
यह कह कर पकौड़ों के लिए धन्यवाद देते हुए वे चले गए. एक नजर में वह हम दोनों को बहुत आत्मीय स्वभाव के लगे. दूसरे दिन वे फिर उसी टाइम मेरे घर पहुंच गए जब प्रभा मेरे लिए नाश्ता बना रही थी. बेतकल्लुफी से उन्होंने भी नाश्ते और चाय में मेरा साथ दिया. उस के बाद भी नियमित किसी दिन पोहा, किसी दिन उपमा, किसी दिन समोसे डकारते गए. कई दिनों तक यह सिलसिला चलता रहा. हर बार वे सटीक बता देते थे कि आज अंदर क्या बन रहा है और ईमानदारी से वे हम लोगों से आग्रह करते रहे कि हम उन से वहीं या फिर फोन पर बता दें कि हम लोग किस दिन खाने पर उन के घर पहुंचेंगे.
एक दिन मैं ने प्रभा से कहा कि किसी दिन अपन को उन के यहां खाने पर पहुंचने का दिन बताना होगा.
‘‘यह कुछ अच्छा नहीं लगता कि हम खुद बोलें कि हम आप के घर खाने पर आना चाहते हैं,’’ प्रभा ने कहा, ‘‘उन्हें बुलाना हो तो खुद बुलाएं. रोज आ कर यहां नाश्ता कर रहे हैं, अब आएं तो बोल देना कि आप ही कोई दिन तय कर के हमें बुला लें.’’
अगले दिन वे फिर आ गए. नाश्ते में मेरा साथ दिया, साथ क्या देते थे, वे मुझ से तिगुना नाश्ता डकार जाते थे. पर आज मैं इंतजार ही कर रहा था, और जैसे ही उन्होंने कहा कि भाईसाहब बताइए, आप लोग कब खाने के लिए आ रहे हैं. मैं एकदम बोला, ‘‘अरे गिरधारी लालजी, मेरी पत्नी संकोच कर रही है कि कैसे हम लोग आप लोगों को तकलीफ दें और इसलिए कोई दिन तय नहीं कर पा रहे हैं. अच्छा होगा आप खुद ही अपनी सुविधानुसार हमें बता दें कि किस दिन आना है.’’
जैसे ही उन्हें यह लगा कि अब हम लोग खाने के लिए बिलकुल तैयार हैं, तो वे थोड़ा सकपकाए. उन्हें लग रहा था कि रोज की तरह हम लोगों का यही जवाब होगा कि थोड़ा घर और जमा लें. कोई अन्य विकल्प न पा कर वे बोले, ‘‘अच्छा, यदि आप लोग तैयार हैं तो मैं सोचता हूं. हां, परसों यदि आप फ्री हों तो हमारे गरीबखाने पर खाने के लिए पधारें.’’
मैं ने भी एकदम ‘हां’ कह दिया.
गिरधारी लालजी के जाने के बाद हम दोनों ने आपस में बात की और निष्कर्ष निकाला कि जो भी हो, गिरधारी लाल हम लोगों को खाने पर बुलाने के लिए वाकई सीरियस हैं.
वह तो उन की हमें खाने पर बुलाने की सीरियसनैस तब पता चली जब कालोनी के ही एक चोपड़ा साहब अपनी लड़की की शादी का निमंत्रण देने आए. उन के यहां भी भोजन का निमंत्रण तभी था जब गिरधारी लाल ने हमें खाने पर बुलाया था. जातेजाते चोपड़ा साहब यह भी बोल गए कि और दूसरे कालोनी वालों को तो मैं पहले ही निमंत्रण दे चुका हूं, आप लोग नए आए हो, मैं ने सोचा खुद चल कर एक दिन पहले बोल आऊं.
जब शाम को गिरधारी लाल फिर आए तब उन्होंने ऐसा कुछ नहीं दर्शाया कि उन्होंने उसी दिन का न्योता दिया है जिस दिन चोपड़ा साहब के यहां शादी का खाना है. जब मैं ने उन से कहा तब बोले, ‘‘अरे, मैं तो भूल ही गया था. हम तो अभागे हैं जो आप कल भी हमारे घर नहीं आ पाएंगे,’’ फिर बोले, ‘‘शर्माजी, मैं आप लोगों को छोड़ने वाला नहीं, किसी और दिन फिर आप लोगों से आग्रह जरूर करूंगा.’’
कुछ दिन और इसी तरह वे रोज हमारे घर शाम को चायनाश्ते का सेवन करते रहे. हम ने नाश्ते का समय भी बदलने की कोशिश की पर नाकाम रहे. जब तक बैठे रहते तब तक हमें खाने पर बुलाने का रिकौर्ड चालू रखते. एक दिन फिर मैं ने बेशर्म हो कर कह दिया, ‘‘गिरधारी लालजी, हम लोग आजकल फ्री हैं, जब आप बुलाएंगे, हम खाने पर आ जाएंगे. बोलिए, कल आ जाएं?’’
‘‘क्यों नहीं, एकदो दिन में ही मैं पत्नी से बात कर आप को बताता हूं,’’ फिर आगे बोले, ‘‘अरे साहब, हम लोग तो उस बिरादरी के हैं जिस में खाने पर बुलाते हैं उसे घर से लेने आते हैं. मैं भी आप को ऐसे ही नहीं आने दूंगा, खुद लेने आऊंगा.’’
उन की इस बात पर मैं फिर सोचने पर मजबूर हो गया कि वाकई गिरधारी लाल सीरियस हैं या फिर रोज नाश्ता डकारने की उन की यह चाल है?
एक सप्ताह और मुफ्त नाश्ता गटकने के बाद एक दिन वे बोले, ‘‘शर्माजी, कैसा रहेगा कि सोमवार रात आप दोनों हमारे घर पर भोजन करें?’’
मैं ने एकदम ‘हां’ कह दिया.
वे फिर बोले, ‘‘आप को मालूम है न कि मैं खुद आप को लेने आऊंगा, भले ही आप हम से 2-3 ब्लौक दूर ही रहते हों.’’
सोमवार का शुभ दिन आया, पत्नी खुश थी कि रात को खाना नहीं बनाना पड़ेगा, पर सुबह 11 बजते ही गिरधारी लाल का फोन आ गया, ‘‘शर्माजी, मैं बहुत शर्मिंदा हूं, आज ही मुझे टूर पर जाना पड़ रहा है. इसलिए आज के लिए माफी. पर हम आप को छोड़ेंगे नहीं, खाने पर तो आना ही पड़ेगा.’’
मैं ने समझा शायद इस बार उन की यह मजबूरी रही हो. लेकिन टूर से आने के बाद जब उन का नाश्ते पर आना फिर चालू हो गया तो एक दिन मैं ने खुद याद दिलाया कि टूर की वजह से हमारा खाना कैंसिल हो गया था. उन्होंने खेद व्यक्त किया और फिर तपाक से नई तारीख 3 दिन आगे की दे दी.
हम लोगों को विश्वास था कि इस बार गिरधारी लाल बच नहीं पाएंगे और इतने दिनों के नाश्ते के बदले हमें अच्छा भोजन करवाएंगे. पर मैं गलत निकला. सुबह ही उन का फोन आ गया, ‘‘शर्माजी, आप की भाभी कल से ही आप के खाने के लिए पता नहीं क्या बना रही हैं, इतनी उत्साहित हैं कि मुझ से तो 2 दिन से बात भी नहीं कर रही हैं. पर क्या करूं, बोलने में शर्म आ रही है. आज ही सुबह हमारा गैस सिलेंडर खत्म हो गया, आप के पास हो तो मैं लेने आ जाऊं. आप को मालूम ही है ये गैस वाले, कितना टाइम लगा देंगे दूसरा देने में.’’
मजबूरी में मैं ने ‘हां’ कर दी. वे आए और हमारा भरापूरा सिलेंडर ले कर चल दिए. हम आश्वस्त थे कि कम से कम आज तो खाना खिलाएंगे गिरधारी लालजी. पर ऐसा नहीं हुआ. शाम को उन का फोन आ गया कि मुन्ने की तबीयत खराब हो गई है, इसलिए उसे अस्पताल लिए जा रहे हैं. मेरे यह कहने के बाद भी कि मैं मदद के लिए आता हूं, उन्होंने इनकार कर दिया कि आप नाहक परेशान न हों. उस दिन घर में हमें खिचड़ी खानी पड़ी.
1-2 दिन के बाद उन का नाश्ते पर आना फिर शुरू हो गया. हर बार हमारे नहीं पहुंचने का खेद व्यक्त करते और वादा करते रहे कि वे हमें छोड़ेंगे नहीं. खिला कर रहेंगे. गैस सिलेंडर वापस करना जैसे वे भूल ही गए. प्रभा रोज मुझ से कहती कि उन को याद दिलाओ. एक शाम मैं ने उन से कह दिया, ‘‘गिरधारी लालजी, वह हमारा गैस सिलेंडर यदि वापस मिल जाता तो…इधर हमारा भी खत्म होने को है.’’
वे सकपकाए, फिर बोले, ‘‘अरे शर्माजी, हम भूले थोड़े ही हैं, वह हमारा आ जाए, बस. फिर आज तो मैं आप को बोलने ही वाला था कि शनिवार की रात आप दोनों का डिनर हमारे यहां पक्का. इस बार मैं आप को कोई मौका नहीं दूंगा कि आप संकोच में हमारे यहां नहीं आएं. मुन्ना उस दिन बीमार हुआ था, उस दिन भी हम लोग सारा खाना बना हुआ छोड़ कर अस्पताल गए थे.’’
मैं ने पत्नी के साथ विचार किया कि ये गिरधारी लाल तो अपने को चूने पर चूना लगाए चले जा रहे हैं. हमारे हिसाब से वे अभी तक 61 प्लेट विभिन्न नाश्तों की खा चुके हैं, इस के अलावा 80 कप चाय और 60 घंटे हमारा दिमाग चाट चुके हैं. रोज खाने पर बुलावा दे कर हम को झुला रहे हैं, और इसी बहाने हमारा भरा हुआ सिलेंडर भी दबा के बैठे हुए हैं. किसी न किसी बहाने खाने की दावत दे कर बच निकलते हैं. अब यदि हम उन के साथ चाणक्य नीति नहीं अपनाएंगे तो उन का आना बंद नहीं होगा. आज मैं ने फैसला कर लिया है कि अब मैं खुद बेशर्म बन कर उन के पास जाऊंगा और खाने का दिन तय कर के आऊंगा. कम से कम एक दिन तो उन का खाना खाएं.
दूसरे दिन सुबह से ही मैं उन के घर के आसपास टहलने लगा. जैसे ही अखबार उठाने के लिए गिरधारी लाल घर से बाहर निकले, मैं ने उन्हें पकड़ कर ‘गुडमौर्निंग’ कहा और वे कुछ बोलते उस से पहले ही मैं ने कह दिया कि यदि सब कुशल मंगल हो तो कल हम आप के घर खाने पर आ जाएं.
वे पहले तो झेंपे पर फिर संभल कर बोले, ‘‘अरे शर्माजी, ये तो खुशी की बात है कि आप खुद हमारे घर आ कर हमारा इतने दिनों से टलता हुआ न्योता स्वीकार करने आए हैं. आप लोग कल जरूर आइए. आप क्यों, मैं स्वयं आप लोगों को लेने पहुंचूंगा, आप को तो मालूम ही है कि हमारी बिरादरी के क्या उसूल हैं.’’
मैं ने कहा, ‘‘हां, वह तो मैं जानता हूं, तो फिर कल पक्का रहा, हम लोग आप के घर, यानी आप हम लोगों को लेने रात को आ रहे हैं.’’
वे बोले, ‘‘अवश्य.’’
घर पहुंच कर मैं ने प्रभा से कहा, ‘‘अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे. अब गिरधारी लाल बच नहीं पाएंगे. अब तो जब उन के यहां खाने जाएंगे, दूसरे दिन ही मैं अपना सिलेंडर वापस लेने पहुंच जाऊंगा. उस के बाद उन के नाश्ते बंद और उन से सदा के लिए संबंध विच्छेद.’’
पर गिरधारी लाल हम से एक कदम आगे थे. जब मैं दफ्तर में था, पत्नी के फोन पर उन का फोन आ गया कि उन की पत्नी के पिताजी कुछ दिनों से बीमार चल रहे थे, सुबह से हालत बिगड़ी, इसलिए उन को ससुराल जाना पड़ रहा है. उन्होंने अपने अभागे होने का दुखड़ा प्रभा के सामने भी प्रकट किया. पिछले जन्म के पापों का जिक्र किया.
लौट कर जब प्रभा से मैं ने किस्सा सुना तो समझ गया कि वे अब पकड़ में नहीं आने वाले. नाश्ता कर के मैं टहलने निकल गया. कालोनी में ही मेरे से कुछ महीने पहले आए हुए अरोरा साहब मिले. मैं ने गिरधारी लालजी का जिक्र किया और पूछा, ‘‘क्या आप उन्हें जानते हैं?’’
वे बोले, ‘‘क्यों, तुम भी उन के चक्कर में पड़ गए? वे तो सब नए आने वालों को इसी तरह लपेटते हैं. मुझे भी लपेटा था. बहुत मुश्किल से मेरा सिलेंडर मुझे वापस मिला. अब किसी नए को लपेट रहे होंगे. इतनी बड़ी कालोनी में हर दूसरेतीसरे दिन कोई न कोई आता ही है.’’
मुझे सबक मिल चुका था.