‘आ गयी बिटिया...’ नीलमणि की मां ने बेटी को दरवाजे से अन्दर आते देखा तो बोल पड़ी.
‘हां मां...’ नीलमणि मां को छोटा सा जवाब देकर अपने कमरे की ओर जाने को हुई तो मां ने हाथ पकड़ कर अपनी खाट पर बिठा लिया. बोली,
‘अरे, सुन तो... जरा इधर बैठ... आज फिर चौधराइन आयी थीं... तुझे पूछ रही थीं... बिटिया, वह कह रही थीं कि अगर तू एक बार शादी का मन बना ले तो एक और अच्छा लड़का उनकी नजर में है...’
‘क्या मां... मैं कितनी बार तुमसे मना कर चुकी हूं... और तुम हो कि अब भी मेरी शादी की बातें सोचती रहती हो... इस उम्र में...? और फिर तुम जानती हो कि मैं उनके अलावा किसी और के बारे में सोच भी नहीं सकती... फिर भी पीछे पड़ी रहती हो?’ नीलमणि की आवाज में तेजी आ गयी.
‘ऐसे कब तक चलेगा बिटिया...? यूं कब तक तू अपने आपको जलाती रहेगी...? नहीं आएगा वो... कभी नहीं आएगा...’ नीलमणि की बूढ़ी मां खटिया पर बैठी सिसकने लगी.
‘वो आएगा मां... एक दिन जरूर आएगा... हमें ऐसी हालत में छोड़कर वो भी चैन से नहीं होगा....’ नीलमणि दृढ़ स्वरों में बोलते हुए मां के पास से उठ गयी. उसे पता था कि अब कम से कम दो घंटे तक तो मां का प्रलाप चलना ही है. नीलमणि दिन भर स्कूल में पढ़ा कर थकी-हारी घर लौटती है और उसके आते ही मां का रोना शुरू हो जाता है.... कभी कहती कि अकेले कैसे बुढ़ापा कटेगा तेरा... कभी अखबार में आया कोई विवाह का विज्ञापन निकाल कर बैठ जाती... तो कभी चौधराइन आकर नये-नये रिश्ते सुझा जाती... यह तो रोज का सिलसिला हो गया है. नीलमणि बुदबुदाते हुए अपने कमरे में घुस गयी.