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शरद रोज सुबह नौ बजे अपने औफिस के लिए निकल जाता था और शाम को छह बजे वापस लौटता था. वापसी में वह कभी गर्मागरम समोसे तो कभी ताजी बनी जलेबी सबके लिए लेता आता था. एक बार विजय सिंह ने उसको टोका भी कि ‘ये क्या फिजूलखर्ची करते हो...?’

वो कहने लगा, ‘बाबूजी, अपना तो कोई है नहीं... आप लोगों से जो स्नेह मिला है इसी से कुछ लाने की हिम्मत हो जाती है... अगर आपको बुरा लगता है, तो कल से....’ वह कहते-कहते उदास सा हो गया.

‘अरे, अरे... मेरा यह मतलब नहीं था बेटा... तुम तो गलत समझ बैठे....’ विजय सिंह ने जल्दी से कहते हुए समोसे का पैकेट उसके हाथों से ले लिया और नीलू को खाली प्लेट लाने के लिए आवाज लगायी.

नीलू किचेन से प्लेट के साथ-साथ चाय की ट्रे भी ले आयी. उसने आंगन में बिछी टेबल पर चाय रख दी और अपने पापा के हाथ से पैकेट लेकर समोसे प्लेट में निकालने लगी.

विजय सिंह और शरद टेबल के साथ पड़ी कुर्सियों पर बैठ गये. सर्दियों की शुरुआत थी. हवा में हल्की-हल्की ठंडक महसूस होने लगी थी. ऐसे में शाम के वक्त खुले आंगन में बैठकर चाय की चुस्कियों के साथ गर्मागर्म समोसों का लुत्फ लेने के लिए नीलू और उसकी मां भी अपने-अपने चाय के प्याले हाथ में लेकर आ गयीं. शरद काफी देर तक सबके साथ बैठा बतियाता रहा.

‘और बताओ बेटा... औफिस में मन रम गया तुम्हारा...? काम कैसा चल रहा है...?’ चाय पीते हुए विजय सिंह ने शरद से पूछा था.

‘ठीक चल रहा है बाबूजी... सारा दिन लोगों से मिलते-जुलते ही बीत जाता है... लाइफ इन्शोरेंस के बारे में लोगों को ज्यादा जानकारी नहीं है.... कुछ लोग तो समझने को ही तैयार नहीं होते हैं कि इन्शोरेंस का फायदा जीवन भर तो होता ही है, मरने के बाद परिवार को भी दरकने से बचा लेता है... लोगों को समझा पाना बड़ा मुश्किल काम है बाबूजी... उनको लगता है कि लाइफ इंशोरेंस से उनको क्या फायदा.... उनके मरने के बाद उनके परिवार वाले ही मौज में रहेंगे, जीते जी उन्हें तो बस पैसा ही भरते रहना है...’ कह कर शरद हंसने लगा.

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