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‘‘आंटी, आप पिक्चर चलेंगी?’’ अंदर आते हुए शेफाली ने पूछा.

‘‘पिक्चर…’’

‘‘हां आंटी, नावल्टी में ‘परिणीता’ लगी है.’’

‘‘न बेटा, तुम दोनों ही देख आओ. तुम दोनों के साथ मैं बूढ़ी कहां जाऊंगी,’’ कहते हुए अचानक नमिता की आंखों में वह दिन तिर आया जब विशाल के मना करने के बावजूद बहू ईशा और बेटे विभव को पिक्चर जाते देख वह भी उन के साथ पिक्चर जाने की जिद कर बैठी थीं.

उन की पेशकश सुन कर बहू तो कुछ नहीं बोली पर बेटा बोला, ‘मां, तुम कहां जाओगी, हमारे साथ मेरे एक दोस्त की फैमिली भी जा रही है…वहां से हम सब खाना खा कर लौटेंगे.’

विभव के मना करने पर वह तिलमिला उठी थीं पर विशाल के डर से कुछ कह नहीं पाईं क्योंकि उन्हें व्यर्थ की तकरार बिलकुल भी पसंद नहीं थी. बच्चों के जाने के बाद अपने मन का क्रोध विशाल पर उगला तो वह शांत स्वर में बोले, ‘नमिता, गलती तुम्हारी है, अब बच्चे बडे़ हो गए हैं, उन की अपनी जिंदगी है फिर तुम क्यों बेवजह छोटे बच्चों की तरह उन की जिंदगी में हमेशा दखलंदाजी करती रहती हो. तुम्हें पिक्चर देखनी ही है तो हम दोनों किसी और दिन जा कर देख आएंगे.’

विशाल की बात सुन कर वह चुप हो गई थीं…पर दोस्त के लिए बेटे द्वारा नकारे जाने का दंश बारबार चुभ कर उन्हें पीड़ा पहुंचा रहा था. फिर लगा कि विशाल सच ही कह रहे हैं…कल तक उंगली पकड़ कर चलने वाले बच्चे अब सचमुच बडे़ हो गए हैं और उस में बच्चों जैसी जिद पता नहीं क्यों आती जा रही है. उस की सास अकसर कहा करती थीं कि बच्चेबूढे़ एक समान होते हैं लेकिन तब वह इस उक्ति का मजाक बनाया करती थी पर अब वह स्वयं भी जानेअनजाने उन्हीं की तरह बरताव करने लगी है.

यह वही विभव था जिसे बचपन में अगर कुछ खरीदना होता या पिक्चर जाना होता तो खुद पापा से कहने के बजाय उन से सिफारिश करवाता था. सच, समय के साथ सब कितना बदलता जाता है…अब तो उसे उन का साथ भी अच्छा नहीं लगता है क्योंकि अब वह उस की नजरों में ओल्ड फैशन हो गई हैं, जिसे आज के जमाने के तौरतरीके नहीं आते, जबकि वह अपने समय में पार्टियों की जान हुआ करती थीं. लोग उन की जिंदादिली के कायल थे.

‘‘आंटी किस सोच में डूब गईं… प्लीज, चलिए न, ‘परिणीता’ शरतचंद्र के उपन्यास पर आधारित अच्छी मूवी है…आप को अवश्य पसंद आएगी,’’ आग्रह करते हुए शेफाली ने कहा.

शेफाली की आवाज सुन कर नमिता अतीत से वर्तमान में लौट आईं. शरतचंद्र उन के प्रिय लेखक थे. उन्होंने अशोक कुमार और मीना कुमारी की पुरानी ‘परिणीता’ भी देखी थी, उपन्यास भी पढ़ा था फिर भी शेफाली के आग्रह पर पुन: उस पिक्चर को देखने का लोभ संवरण नहीं कर पाईं तथा उस का आग्रह स्वीकार कर लिया. उन की सहमति पा कर शेफाली उन्हें तैयार होने का निर्देश देती हुई स्वयं भी तैयार होने चली गई.

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विशाल अपने एक नजदीकी मित्र के बेटे के विवाह में गए थे. जाना तो वह भी चाहती थी पर उसी समय यहां पर उन की सहेली की बेटी का विवाह पड़ गया अत: विशाल ने कहा कि मैं वहां हो कर आता हूं, तुम यहां सम्मिलित हो जाओ. कम से कम किसी को शिकायत का मौका तो न मिले. वैसे भी उन्होंने हमारे सभी बच्चों के विवाह में आ कर हमारा मान बढ़ाया था, इसीलिए दोनों जगह जाना जरूरी था.

विशाल के न होने के कारण वह अकेली बोर होतीं या व्यर्थ के धारावाहिकों में दिमाग खपातीं, पर अब इस उम्र में समय काटने के लिए इनसान करे भी तो क्या करे…न चाहते हुए टेलीविजन देखना एक मजबूरी सी बन गई है या कहिए मनोरंजन का एक सस्ता और सुलभ साधन यही रह गया है. ऐसी मनोस्थिति में जी रही नमिता के लिए शेफाली का आग्रह सुकून दे गया तथा थोडे़ इनकार के बाद स्वीकर कर ही लिया.

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वैसे भी उन की जिंदगी ठहर सी गई थी. 4 बच्चों के रहते वे एकाकी जिंदगी जी रहे हैं…एक बेटा शैलेष और बेटी निशा विदेश में हैं तथा 2 बच्चे विभव और कविता यहां मुंबई और दिल्ली में हैं. 2 बार वे विदेश जा कर शैलेष और निशा के पास रह भी आए थे लेकिन वहां की भागदौड़ वाली जिंदगी उन्हें रास नहीं आई थी. विदेश की बात तो छोडि़ए, अब तो मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों का भी यही हाल है. वहां भी पूरे दिन अकेले रहना पड़ता था. आजकल तो जब तक पतिपत्नी दोनों न कमाएं तब तक किसी का काम ही नहीं चलता…भले ही बच्चों को आया के भरोसे या क्रेच में छोड़ना पडे़.

एक उन का समय था जब बच्चों के लिए मांबाप अपना पूरा जीवन ही अर्पित कर देते थे…पर आजकल तो युवाओं के लिए अपना कैरियर ही मुख्य है…मातापिता की बात तो छोडि़ए कभीकभी तो उन्हें लगता है आज की पीढ़ी को अपने बच्चों की परवा भी नहीं है…पैसों से वे उन्हें सारी दुनिया खरीद कर तो देना चाहते हैं पर उन के पास बैठ कर, प्यार के दो मीठे बोल के लिए समय नहीं है.

बच्चों के पास मन नहीं लगा तो वे लौट कर अपने घर चले आए. विशाल ने इस घर को बनवाने के लिए जब लोन लिया था तब नमिता ने यह कह कर विरोध किया था कि क्यों पैसा बरबाद कर रहे हो, बुढ़ापे में अकेले थोडे़ ही रहेंगे, 4 बच्चे हैं, वे भी हमें अकेले थोडे़ ही रहने देंगे पर पिछले 4 साल इधरउधर भटक कर आखिर उन्होंने अकेले रहने का फैसला कर ही लिया. कभी बेमन से बनवाया गया घर अचानक बहुत अच्छा लगने लगा था.

अकेलेपन की विभीषिका से बचने के लिए अभी 3 महीने पहले ही उन्होंने घर का एक हिस्सा किराए पर दे दिया था…शशांक और शेफाली अच्छे सुसंस्कृत लगे, उन का एक छोटा बच्चा था…इस शहर में नएनए आये थे, शशांक एक प्राइवेट कंपनी में काम करता था. उन्हें घर की जरूरत थी और विशाल और नमिता को अच्छे पड़ोसी की, अत: रख लिया.

अभी उन्हें आए हुए हफ्ता भर भी नहीं हुआ था कि एक दिन शेफाली आ कर उन से कहने लगी कि ‘आंटी, अगर आप को कोई तकलीफ न हो तो बब्बू को आप के पास छोड़ जाऊं, कुछ जरूरी काम से जाना है, जल्दी ही आ जाएंगे.’

अगले भाग में पढ़ें- पिक्चर शुरू भी नहीं हो पाई थी कि बच्चा रोने लगा.

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