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‘तब तो घर के काम के लिए जो नौकरनी तुम ने उट्ठा पर रखा था, उसे तो तुम ने उठा दिया होगा?’ मैं ने पूछा.

‘जी हां, अब उस की क्या जरूरत. पिछले महीने का दरमाहा दे कर मैं ने उसे विदा कर दिया. आप ने तो देखा ही है कि सारा काम इस ने अच्छे से संभाल लिया है. दोपहर को ये मां के पैर भी दबाती है. अपने व्यवहार से इस ने मां का दिल तो जीत ही लिया है, दोनों बच्चे भी इस के मुरीद हो गए हैं. गुड्डी और गिल्लू का खूब खयाल रखती है- खासकर गिल्लू का. अब तो स्कूल से आने के बाद वह इस के पीछेपीछे ही मंडराता रहता है. जाने इस ने उस पर क्या जादू कर दिया है. दालचावल में घी डाल कर रोज दोपहर उसे बड़े प्यार से कौरकौर कर के खिलाती है. उस के इतने नखड़े यही उठा सकती है, मेरे बस का तो नहीं बाबा. कौन रोज उसे कौरकौर कर खाना खिलाए.

'अच्छा है, ये आ गई है. अब अच्छा से खाएगा तो बदन को भी लगेगा,’ नंदिनी  ने खुलासा किया.

मेरी बेटी गुड्डी यानी गायत्री 10 साल की है और बेटा गिल्लू यानी गौतम 6 साल का. दोनों पास के ही एक स्कूल में पढ़ने जाते थे.

‘पर, तुम्हें नहीं लगता कि स्वच्छता के लिहाज से यह सही नहीं है. तुम गिल्लू को समझाओ,’ मैं ने प्रतिवाद किया. मेरा मानना था कि स्कूल लाने व ले जाने तक तो धाय पर निर्भरता ठीक थी, किंतु धाय से एक दूरी बना कर रखना भी तो जरूरी था. यह अतिरिक्त सहृदयता अनावश्यक था. खानपान में अंतर तो होना ही चाहिए, ऐसा मेरा मानना था. यों भी बच्चे दादी मां और मां के आंचल की छांव में महफूज ही थे.

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