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इस घटना के दूसरे ही दिन मुझे कोर्टकचहरी के चक्कर में शहर जाना पड़ गया. दरअसल, मेरे अभ्रक खान के खनन पट्टे की अवधि समाप्त होने पर थी. इस के नवीनीकरण के लिए जिला खनन कार्यालय व स्थानीय कोर्ट में कुछ हलफनामा और करारपत्र आदि दाखिल करने थे. मेरे वकील ने मुझे बताया था कि इन समस्त कार्यवाही में तकरीबन एक महीने का समय लगना था.

मैं ने नंदिनी से साथ चलने की पेशकश की तो उस ने यह कह कर इनकार कर दिया कि कल ही उत्तमा मईया काम पर लगी है और वो मांजी को उस के भरोसे अकेले छोड़ कर नहीं जा सकती.

‘अरे, तुम भी अहमक हो. उस लाचार सी औरत से मां को क्या खतरा?’ मैं ने हंसते हुए पूछा.

‘न बाबा न, आप ही जाएं. मैं फिर कभी चली जाऊंगी.’

नंदिनी अपने निर्णय पर अडिग रही. बहरहाल, मैं अकेला ही शहर जाने की तैयारी करने लगा.

एक महीने बाद जब मैं घर लौटा, तो पोर्टिको में गाड़ी खड़ी करने से पहले सामने के लौन से गुजरते हुए मुझे आभास हुआ कि लौन में घास बड़ी तरतीबी से लगी हुई थी. क्यारियों में फूल के पौधे के आसपास भी काफी साफसफाई थी. इस बगीचे की देखभाल की जिम्मेदारी बिहारी की थी. मैं ने बिहारी को काम से जी चुराते हुए कभी नहीं पाया, किंतु उस के काम में इतनी सुघड़ता भी मैं ने कभी नहीं देखी थी. अतः आश्चर्य हुआ. चलो अच्छा है. देर आए दुरुस्त आए. यह सोच कर मैं मां के कमरे में उन के चरण स्पर्श को प्रवेश किया, तो वहां उत्तमा मईया को देख दूसरा आश्चर्य हुआ. वो मां के पैर दबा रही थी. मेरी उम्मीद से परे एक महीने बाद भी वो इस घर में मौजूद थी, यह किसी आश्चर्य से कम नहीं था.

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