लेखक-राजेश सहाय
शाम के समय बिसेसर को घर पर आया देख मेरी पत्नी नंदिनी को आश्चर्य हुआ.
‘तुम यहां इस समय कैसे? इस वक्त तो तुम्हें गोदाम पर होना चाहिए था. बात क्या है?’
नंदिनी ने जब उस से यह पूछा, तो बिसेसर ने अपने कान पकड़ लिए मानो इस गलती के लिए वह माफी मांग रहा हो. फिर वह अपने आने का प्रयोजन बताने लगा.
‘मलकिनी ये उत्तमा मईया है. हमारी बहन है. विधवा है. 10 साल पहले इस का बेटा उत्तम, जिस की उमर 12-14 साल की रही होगी, मेरे बहनोई के मरने के बाद घर छोड़ कर चला गया. कहां गया, पता नहीं चल पाया. हम लोगों ने उसे ढूंढ़ने की बहुत कोशिश की. बहुत पैसा भी खर्च हुआ. पर वह नहीं मिला. न जाने बचा भी है कि नहीं. जीता होता तो अपनी मां की जरूर सुध लेता.
‘आज इस बात को 10 बरस बीत गए. कुछ दिन अपने पास रखने के बाद इस की सास ने गुस्से में इसे नैहर भेज दिया. वह इसे अपने बेटे के असमय मौत का जिम्मेवार ठहराती है. तब से ये हमारे घर ही रहती है.
‘पर मांजी, औरतों की तबीयत के बारे में हम क्या कहें. आप को तो सब पता ही है. घर पर ननदभौजाई में रोज चकचक मची रहती है और हम परेशान होते रहते हैं. आप की इतनी बड़ी हवेली में इसे आसरा मिल जाए तो बड़ी मेहरबानी होगी. इसी आशा से इसे ले कर आप के पास आया हूं. यह यहां रहेगी तो इस की जिंदगी भी सही ढंग से निभ जाएगी. आप के घर के सारे काम कर देगी. काम करने के मामले में ये खूब मेहनती है.
‘बहन है, इसलिए नहीं तारीफ कर रहा हूं. हर चीज साफसुथरी और अपनी जगह पर मिलेगी. इसी बात को ले कर दोनों औरतों का झगड़ा भी होता था. इस की भाभी जरा आलसी है और घर को व्यवस्थित रखने में ढीली. हमेशा जरूरत का सामान यहांवहां कहीं रख कर भूल जाती है, जिस की वजह से ये उस से उलझ पड़ती है,’ बिसेसर ने अपनी बहन के सारे गुण व व्यथा का वर्णन एक ही सांस में कर डाला.
इस देश में आज भी एक लड़की को उस के पिता के नाम से जाना जाता है और शादी के बाद उस के पति अथवा बेटे के नाम से. इस औरत की पहचान उस के बेटे उत्तमा से है. एक ऐसा बेटा, जिस ने अपनी जननी को ही बिसार दिया और उस की कभी सुधि नहीं ली.
‘पर हमें घर पर काम करने के लिए किसी की आवश्यकता नहीं है. सुबहशाम चौकाबरतन का काम करने वाली है. तुम अपने घर की कलह को हमारे हवाले क्यों किए जा रहे हो?’ नंदिनी ने बिसेसर को टालते हुए कहा.
बिसेसर ने जीभ को दांतों से काट कर हाथ जोड़ लिए, ‘मलकिनी, यह कलह करने वाली नहीं है. बड़ी उम्मीद से हम इसे आप के पास ले कर आए हैं. आप जैसे बड़े लोगों के लिए एक बेसहारा महिला को सहारा देना बड़ी बात नहीं है. जहां एक बेसहारा को सहारा देने का पुण्य आप को मिलेगा, वहीं इस बेसहारा का भी एक निश्चित ठौर हो जाएगा.’
बिसेसर मेरे मालगोदाम पर दरबानी करता है और उस की ड्यूटी शाम 8 बजे से सुबह 6 बजे तक की है. लंबाचौड़ा गठीला श्यामल शरीर, चेहरे पर रोबीली मूछें और कसरती बदन वाला बिसेसर अपनी शारीरिक सौष्ठव के विपरीत बिलकुल ही विनम्र प्रकृति का है.
बिसेसर की ही तरह उत्तमा मईया भी श्याम वर्ण की थी, किंतु समय के आघातों ने उस के चेहरे को कांतिहीन बना दिया था. जिस के पति की मृत्यु युवावस्था में ही हो जाए और जिस का बच्चा घर छोड़ कर चला जाए, वो सामान्य रह भी कैसे सकती थी?
बिसेसर की बातें सुन कर नंदिनी सोच में पड़ गई. जब मैं ने बिसेसर को कुछ ज्यादा ही परेशान पाया, तो नंदिनी से उस की बहन को घर के काम पर रख लेने को कहा.
‘आप तो बहुत जल्दी द्रवित हो जाते हैं. कम से कम मांजी से पूछ तो लेते,‘ नंदिनी ने मेरे फैसले का प्रतिवाद किया.
‘मां को मैं मना लूंगा,’ मैं ने नंदिनी को आश्वस्त किया.
‘पर, यह रहेगी कहां?’ नंदिनी ने अंतिम बाण छोड़ा.
‘अरे, गोहाल के बगल में बने भूसीघर में ही ये अपने लिए जगह बना लेगी. इतना बड़ा भूसीघर भी आबाद हो जाएगा,’ मैं ने नंदिनी की शंका का निवारण करते हुए कहा.
जैसी कि आशंका थी, मां ने जब ये सुना तो वो भी बिफर पड़ी. संभवतः नंदिनी ने ही कुछ बढ़ाचढ़ा कर कहा होगा. ‘सत्तो, (अपने बेटे सत्येंद्रनाथ को वो इसी नाम से पुकारती हैं) इसे रखने से पहले इस की जातबिरादरी का तो पता कर लिया होता.’
मां की बात पर मुझे हंसी आई. इस युग में भी वे कहां जातपांत को ले कर बैठ गई. यदि इस बेसहारा महिला की मदद नहीं करनी, तो स्पष्ट कहना बेहतर था. जातपांत का बखेड़ा व्यर्थ का प्रपंच था.
वैसे भी मेरा मानना था, ‘सब तें कठिन जाति अवमाना’, किंतु प्रत्यक्ष मैं ने इतना ही कहा, ‘मां, ये बिसेसर की बहन है, जो जाति का कोइरी है और जिस पर तुम्हें कोई एतराज नहीं है. इसलिए जाति के नाम पर उस की बहन को ना रखना नीतिपरक नहीं होगा. उस के काम को देखते हैं. यदि घर के काम में वह उतनी ही सलीकेदार है, जैसा कि बिसेसर बता कर गया है तो ठीक, वरना उसे हटा देंगे. अभी यह अध्याय यहीं समाप्त करते हैं.’
बहस खत्म करने की गरज से मैं ने मां को समझाया.
मेरी छठी इंद्रिय कहती थी कि मेरी मां और मेरी पत्नी दोनों ने ही मेरे दवाब में आ कर मेरे फैसले को स्वीकार करते हुए उत्तमा मईया को रखने को तैयार तो हो गए थे, किंतु वे दोनों ही मेरे इस फैसले से असंतुष्ट दिखते थे.
मैं ने मन ही मन मान लिया कि इस बेसहारा औरत का आसरा हमारी हवेली में बहुत दिनों तक रहने वाला नहीं है. जब घर की दोनों महिलाएं आप के फैसले के खिलाफ हों, तब उसे कायम रखना टेढ़ी खीर थी.
‘मैं समझ गया कि उस बेसहारा महिला की कड़ी परीक्षा सुनिश्चित थी. यह भी तय था कि इस परीक्षा में सासबहू उसे अनुत्तीर्ण कर उसे बाहर का रास्ता दिखा देंगी. इस प्रकार मेरे फैसले की इज्जत भी रह जाएगी और उन का अभीष्ट भी सिद्ध हो जाएगा. आखिर गृहस्वामिनियों से विरोध के सामने कोई कब तक टिक सकता है. यह तो यों भी एक लाचार, बेसहारा और मजलूम औरत थी.