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कतारों में खड़े लोगों को देखने भर से ही उन की निर्धनता का अंदाजा लग रहा था. अधिकांश के पैरों में चप्पलें नहीं थीं. पहनावा भी ढंग का नहीं था. बोलचाल से साफ पता रहा था कि उन्हें रियांग भाषा को छोड़ दूसरी कोई भाषा नहीं आती. उन की दुनिया स्वयं तक सीमित है. पहाड़ की तलहटी में बसे गांव में वे कभीकभार बाजार करने जाते होंगे. जिला मुख्यालय हैलाकांदी या शिल्चर शायद कभी गए हों. हां, एक बात साफ है कि भले ही वे निर्धन हों पर वे अपनी अभावग्रस्त जिंदगी में भी संतुष्ट थे. बस, उन्हें चाहिए था अपने घर में पीने का साफ पानी, बिजली, बच्चों के लिए विद्यालय और आवागमन के लिए सही रास्ते, ताकि वे भी दुनिया के साथ सही तालमेल बिठा सकें.

लोग कतारबद्ध खड़े थे. चुनाव चल रहा था. हमारे साथियों को दम मारने की फुरसत नहीं थी. वे चाह कर भी उठ नहीं पा रहे थे. खाने के नाम पर कुछ बिस्कुट और चोंगे में चाय मिली. दोपहर का 1 बजने वाला था. फिर भी कतार लंबी थी. स्थानीय लोग भोजन ले कर हाजिर थे. मनुहार कर रहे थे, ‘‘खाना खा लेते तो ठीक था.’’

मेरे एक सहयोगी ने अनुरोध किया, ‘‘आधे घंटे के लिए नियमानुसार मतदान रोक दें. प्रिसाइडिंग औफिसर की डायरी में लिखा भी है. कुछ खाने की इच्छा नहीं. मगर बैठेबैठे देह अकड़ गई है. हम अपना शरीर जरा सीधा कर लें.’’

कुछ अन्य लोग भी इस से सहमत थे. मगर बाहर प्रतीक्षारत लोगों को क्या कहें. वे भी तो धूप में घंटों खड़े थे. उन्हें अपनी बारी का इंतजार था. उत्सुकता और जिज्ञासा थी कि वे देखें कि मतदान क्या और कैसे होता है. उन के इस नागरिक अधिकार की पूर्ति का यही तो एक मौका था. मतदान रोक कर कैसे खाना खाएं हम लोग. बाहर लगी लंबी लाइन को कैसे नजरअंदाज कर देते. इन्हें फिर इस का मौका कब मिले, पता नहीं.

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