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‘‘हां, पोर्टर तो मिलेंगे मगर प्रति पोर्टर 200 रुपए देने होंगे.’’

मरता क्या न करता. मैं इस के लिए तैयार था, तभी एक जवान ने सूचित किया कि हमारे सैक्टर औफिस ने 3 पोर्टरों को हमारी मदद के लिए भेजा है.’’

हमारी जान में जान आई. पोर्टर सरकारी चुनाव सामग्री के साथ हमारे बैग को भी बहंगियों में बांधने लगे थे. अब हम कूच के लिए तैयार थे. सबइंस्पैक्टर के इशारे पर हम गांव की पगडंडियों पर बड़ेबड़े डग भरते उस के पीछे चल दिए. पोर्टरों को न जाने पंख लगे थे कि पहिए. वे लगातार आगे बढ़ते जाते थे और हम पीछे छूट जाते थे. इन सब को नियंत्रित और संयमित करने का काम सबइंस्पैक्टर कर रहा था. ग्रामीण हमें अजीब निगाहों से देख रहे थे.

गांव का रास्ता पीछे छूटा. अब छोटेबड़े टीले आने आरंभ हो गए थे. सामने मिजोरम के भूरेकाले पहाड़ों की शृंखलाएं दिख रही थीं, जिन पर धूप पसरी हुई थी. अब हम पहाड़ों की चढ़ाई वाली पगडंडियों पर चल रहे थे.

मिजोरम की मनोरम पहाडि़यों से निकल कर दक्षिण असम की ओर बहने वाली काटाखाल नदी का विशालकाय पाट हमारे सामने था. उस पर बांस का बना पुल था, जिसे पार कर हमें आगे बढ़ना था. काफी संभल कर उस पुल पर पांव धरते हम आगे बढ़े. प्राणों का मोह मनुष्य को संभल कर चलना सिखा देता है. सो, हम संभल कर चल रहे थे.

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असम बटालियन का एक जवान मेरे साथ मेरे बराबर ही चल रहा था. मैं जिस स्थान से आया था, वहां वह कुछ समय तक रह चुका था और वह अच्छी हिंदी भी बोल रहा था. कभीकभार अपने मोबाइल पर हिंदी फिल्मों के गीत भी बजा रहा था. पहाड़ी रास्तों पर हमारे फोन के सिग्नल कभी उभरते, कभी गायब हो जाते.

इन पहाड़ों पर बंगलादेश, त्रिपुरा और मिजोरम से विस्थापित रियांग जनजाति के लोगों को बसाया गया है, यह मैं ने सुना था.

रास्ते में एक बड़ा सा पहाड़ी नाला मिला. नाम है, ‘बैगन नाला’. एक विशालकाय वृक्ष को काट कर, उस नाले पर गिरा कर पुल बना दिया गया है. इस के किनारे कुछ स्थानीय लोग स्नान कर रहे थे.

‘‘ये लोग यहां स्नान वगैरह कर अपने कपड़े भी धो लेते हैं,’’ सबइंस्पैक्टर बोला, ‘‘ऊपर पहाड़ पर पानी की घोर समस्या है. हम लोग भी यहां थोड़ी देर रुक कर पानी पी लेते हैं.’’

फ्रिज के पानी के समान शीतल और साफ पानी था. हम ने पानी पिया और बोतलों में भी भर लिया. इस के बाद आगे बढ़ चले. जंगलपहाड़ के बीच इक्केदुक्के बांस के घर मिलते. उन के साथ होते गाय, सूअर और मुरगियों के दड़बे. एक घर के सामने के बेर के पेड़ पर एक जवान ने डंडा फेंका तो भरभरा कर पके बेर गिरने लगे. बेरों को चुन कर उस ने अपनी जेबों में भर लिया था.

इन जवानों के कंधे पर मशीनगनें और एसएलआर टंगे थे. छाती पर बुलेटप्रूफ था और कमर में थीं बुलेट से लैस बैरेल. इन्हीं के बीच एक रियांग गृहस्वामिनी से मांगे गए थोड़े नमक के साथ बेर खाते जवान साथ चल रहे थे. धूप तेज हो चुकी थी. हम खाली हाथ थे, फिर भी पसीने से लथपथ थे और रास्ता था कि खत्म होने का नाम नहीं ले रहा था. हम घिसटते हुए आगे बढ़ते जाते थे.

लगभग 4 घंटे की यात्रा कर हम उस रियांग बस्ती में प्रविष्ट हुए जहां हमें पहुंचना था. वहां पहुंच कर एवरेस्ट चोटी फतह करने जैसा एहसास हुआ. मगर अभी तो बस शुरुआत थी. पड़ाव डालने वाले प्राथमिक विद्यालय तक पहुंचने के लिए हमें एक और पहाड़ की चोटी पर चढ़ना था. वहां पहुंच कर हम ने वहां पड़ी बैंच और डैस्कों को जोड़ कर चौकी तैयार की और उस पर चादर बिछा कर लुढ़क पड़े. थोड़ी देर बाद तामचीनी के प्यालों में भर कर चाय और बिस्कुट ले कर एक रियांग लड़की आ गई. एकदम साधारण सी वेशभूषा, मगर पर्वतीय लावण्य उस में से फूट पड़ता था.

ऐसे कठिन समय में जब जो भी मिलता है, वह अमृत समान लगता है. चाय पी कर हमें ताजगी का एहसास हुआ.

पैर मनमन भर के हो रहे थे. मैं यों ही लेट गया. तब तक कुछ रियांग लोग इकट्ठा हो गए थे. सबइंस्पैक्टर उन से बंगला में बात कर रहा था. उन लोगों की बातचीत से आभास हुआ कि उधर कितनी घोर अशिक्षा है. वे अपनी रियांग भाषा को छोड़ बंगला, हिंदी, अंगरेजी कुछ नहीं जानते. बस, कुछ लोग हैं, जो मिजोरम की राजधानी आइजोल या हैलाकांदी या शिल्चर गए होंगे और इसलिए वे बंगला, हिंदी या अंगरेजी जानते हैं. वैसे रियांग युवकों का हिंदी उच्चारण एकदम साफ और स्पष्ट था और वे धाराप्रवाह हिंदी बोल भी लेते थे. सबइंस्पैक्टर के निर्देशानुसार उन्होंने शीघ्रतापूर्वक विद्यालय के पीछे एक अस्थायी शौचालय और बाथरूम बना दिए थे. प्लास्टिक के एक ड्रम में पानी भरा गया था और अब हमारे सहयोगी हाथमुंह धो रहे थे.

‘‘यहां पानी की बहुत दिक्कत है,’’ एक रियांग युवक बता रहा था, ‘‘कृपया हिसाब से ही पानी का उपयोग करें.’’

मन मार कर सभी को थोड़े पानी से ही हाथमुंह धो कर संतोष करना पड़ा.

लगभग 2 बजे भोजन हाजिर था. स्थानीय चावल का भात, मसूर की दाल, नीचे घाटी में बनी पोखर की मछली और आलू की सब्जी थी. चूंकि स्थानीय लोग तेलमसाले का उपयोग नहीं के बराबर करते हैं, खाना फीका था. मगर भूख का स्वाद से कोई संबंध नहीं होता. सो, सहजतापूर्वक हम भोजन कर रहे थे, क्योंकि भोजन के साथ नमक और मिर्च भी तो थे. मेरे साथी आपस में बात कर रहे थे, ‘‘अभी पूरे 24 घंटे बाकी हैं.’’

गांव में बिजली पहुंचने का सवाल नहीं है. फिर मोबाइल चार्ज कैसे होते हैं. एकाध घर में सोलर एनर्जी का सैट लगा है. उसी से चीन निर्मित टौर्च, मोबाइल आदि चार्ज होते हैं. नहीं तो फिर रामनाथपुर में चार्ज किए जाते हैं. मगर वहीं कौन सी बिजली हरदम उपलब्ध रहती है. असम बटालियन कैंप में भी सोलर एनर्जी सैट है. मगर पचासेक लोगों के मोबाइल, टौर्च आदि कितनी मुश्किल से चार्ज होते होंगे.

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‘‘काम बहुत है,’’ मेरे सहयोगी बता रहे थे, ‘‘कुछ अभी काम कर लें, तो आसानी रहेगी. आप को सारे बैलेटपेपर पर साइन भी करने हैं. काफी कठिन काम है.’’

‘‘हो जाएगा,’’ मैं बेतकल्लुफ हो कर बोला, ‘‘अभी बहुत समय है.’’

‘‘यहां बिजली नहीं है. रात में अंधेरे में कैसे काम कर पाएंगे.’’

‘‘ठीक है.’’

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