श्यामाजी ने जैसे ही अपनी अलमारी खोली तो एक बार फिर उन की त्योरियां चढ़ गईं. अपने कमरे से ही जोर से पुकार उठीं, ‘‘मंजरी, मंजरी.’’
‘‘जी, दादी.’’
‘‘कहां थी? पुकारतेपुकारते मेरा गला सूख गया, लेकिन तुम लोगों को तो बातों से फुरसत नहीं है. कान से मोबाइल चिपका ही रहता है.’’
‘‘क्या काम है, जल्दी बताइए. कल मेरा पेपर है.’’
‘‘तुम से कितनी बार कह चुकी हूं, मेरी अलमारी की सफाई कर के ठीक से लगा दो. नहीं करना है तो साफ मना कर दो. हम रोजरोज तुम से क्यों कहें?
‘‘मुझे आंखों से दिखाई नहीं देता, इसलिए कहना पड़ता है, नहीं तो मुझे तुम लोगों से भला क्या काम?’’
मंजरी भुनभुनाते हुए मन ही मन बोली, ‘हो गया छुट्टी का कबाड़ा, एकएक रुपया गिनवाएंगी. एकएक डब्बी और रेशमी थैली से जेवर निकालनिकाल कर देखेंगी. घंटों का राग हो गया. उस के बाद मोहिनी बूआ की तारीफ के कसीदे काढ़ेंगी.’
‘‘क्या बड़बड़ा रही हो? मुझे ऊंचा सुनाई पड़ने लगा है न इसीलिए. तुम रहने दो. तुम्हारे बस का नहीं है, मैं खुद ही, जैसे बनेगा वैसे ठीक कर लूंगी.
‘‘पढ़े होते, तो आज तुम लोगों का मुंह न देखना पड़ता. क्या करूं? गिनती ही भूल जाती हूं. मोहिनी ने कितना तो सिखाने की कोशिश की, लेकिन मैं ही अच्छी तरह सीख नहीं पाई.’’
‘‘दादी, बूआ आने वाली हैं. उन्हीं से ठीक करवा लेना.’’
‘‘कब आ रही है मोहिनी? मुझे कौन बताने वाला है. यहां आ कर ठीक से बताओ.’’
‘‘पापा, मम्मी से कुछ बात कर रहे थे. मुझे ठीकठीक नहीं मालूम.’’
मानसी रसोई में नाश्ता बना रही थी साथ ही दादीपोती की बातें भी सुन रही थी. वह अम्माजी की आदत से परिचित थी.
श्यामाजी उम्रदराज महिला हैं. 85 वर्ष के आसपास उन की उम्र होगी. जमींदार परिवार से ताल्लुक रखती थीं. अपनी जवानी में सोने के जेवरों से लदी रहती थीं. पति असमय अकेला छोड़ गए थे. जमीनजायदाद सब परिवार के लोगों ने हड़प ली थी, तब उसी सोने की मदद से अपने दोनों बच्चों को पढ़ायालिखाया, फिर बेटी की शादी निबटाई. बेटे मनोहर को साडि़यों का कारोबार करने के लिए पूंजी दी. अब भी 2-4 पुराने कलात्मक जेवर उन की अलमारी के अंदर ताले में बंद हैं.
पहले राजकुमारी फिर रानी जैसा जीवन बिताने वाली श्यामाजी ने बहुत तंगहाली के दिन भी देखे हैं, इसलिए उन के मन में पैसे के लिए जरूरत से ज्यादा मोह हो गया है. वे शरीर से काफी कमजोर हो चुकी हैं. कमर झुक गई है, छड़ी ले कर भी दूसरों के सहारे से ही चल पाती हैं. अपने दैनिक कार्यों के लिए बहू मानसी या आया पर आश्रित हैं. अपनी मजबूर अवस्था के कारण मन ही मन कुंठित रहती हैं. इसलिए बातबात पर चिड़चिड़ाती रहती हैं. उम्र बढ़ने के साथसाथ मन में वहम पाल बैठी हैं कि बहू मानसी उन का जेवर, रुपया चुरा लेगी, इसलिए हर समय खीझती रहती हैं.
बेटी मोहिनी के पति मदनजी शादी के समय शिक्षा विभाग में क्लर्क थे. अब वे अफसर बन गए हैं. परंतु नौकरी में आमदनी तो सीमित ही होती है. चीना व नीना 2 बेटियां हैं. दोनों उच्च शिक्षा प्राप्त कर चुकी हैं. भाईबहन आपस में एकदूसरे से बहुत प्यार करते हैं. मनोहर यथासंभव बहन को उपहार आदि देता रहता है. परंतु श्यामाजी बहू मानसी की खुशहाली और समृद्धि देख कर मन ही मन कुढ़ती रहती हैं.
बेटा मनोहर बचपन से ही दोहरे बदन का था. छोटा था, तभी पोलियो ने उस का 1 पैर खराब कर दिया था. इसलिए वह हलका लंगड़ा कर चलता था. इसी कारण से उस की शादी नहीं हो पा रही थी. उस समय श्यामाजी की आर्थिक स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं थी. अंत में मजबूरीवश श्यामाजी ने अपने दिल पर पत्थर रख कर पक्के सांवले रंग की मानसी के साथ बेटे का रिश्ता पक्का कर दिया था. परंतु उसे बहू का सम्मान आज तक न दे पाई थीं.
अब मनोहर साडि़यों का सफल व्यापारी है. उस की वाक्पटुता और कड़ी मेहनत से कारोबार दिनदूना रातचौगुना बढ़ता जा रहा है.
बहू मानसी साधारण मध्यम परिवार से है. वह संस्कारसंपन्न कुशल गृहिणी है. वह श्यामाजी की सुखसुविधा का पूरा ध्यान रखती है. उन का पूरा सम्मान करती है. सब ठीक सा ही रहता है लेकिन बेटी मोहिनी के आते ही सब गड़बड़ हो जाता है.
श्यामाजी का मोतियाबिंद का औपरेशन हुआ था. लगभग 20 दिन बाद बेटी मोहिनी उन से मिलने आई थी. बेटी को देख कर श्यामाजी का दिमाग सातवें आसमान पर था.
मानसी ने नाश्ते में चीला बनाया था.
‘‘देख लिया मोहिनी, बहू ने कितना मोटा चीला बनाया है? मैं ऐसा बनाती तो मेरी सास मेरे मुंह पर मार देती. हमें तो पेट भरना है. कच्चापक्का जो मिले, वही चुपचाप खा लेती हूं.’’
‘‘अम्मा, इतना करारा तो चीला है. लीजिए, आप मेरे वाला ले लीजिए. चटनी कितनी टेस्टी बनाई है भाभी ने,’’ फिर वह अम्मा की बात को दबाने के लिए बोली, ‘‘वाह भाभी, मजा आ गया.’’
‘‘अम्मा, आप धीरे बोलिए. भाभी सुनेंगी तो उन्हें कितना खराब लगेगा.’’
‘‘मुझे तुम्हारी भाभी का डर थोडे़ ही है. तू क्या समझे? मैं तो जानबूझ कर चिल्ला कर बोलती हूं, जिस से उस के मन में मेरा डर बना रहे.’’
‘‘अम्मा, आप तो जाने किस जमाने में जी रही हैं. बहू को भी बेटी की ही तरह बल्कि उस से भी ज्यादा प्यार की जरूरत रहती है. क्योंकि वह तो अपनों को छोड़ कर दूसरे घर में आई होती है.’’
‘‘रहने दे मुझे मत सिखा. मैं तो वैसे ही मुंह बंद कर के रहती हूं.’’
‘‘मोहिनी, तुम भी बदल गई हो, अब तुम्हें भी हर समय अम्मा में ही खोट नजर आती है.’’
मोहिनी अपनी अम्मा के क्रोध को जानती हुई चुप हो गई. वह मानसी भाभी का हाथ बंटाने रसोई में चली गई.
मानसी के लिए कुछ नया नहीं था. वह अम्माजी के स्वभाव से अच्छी तरह परिचित थी. जब तक मोहिनी जीजी रहेंगी, अम्माजी इसी तरह बातबात में उस पर तीर चलाती रहेंगी.
वह रोज की तरह आईड्रौप ले कर अम्माजी की आंखों में डालने के लिए आई.
‘‘अम्माजी, आंख खोलिए, दवा डाल दूं.’’
‘‘तुम बेकार ही परेशान होती हो. तुम्हें तो दस काम हैं. लल्ली डाल देती,’’ प्यार से वे मोहिनी को लल्ली कहती थीं.
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