मोहिनी झुंझला कर बोली, ‘‘अरे अम्मा, सारा दिन पड़ा है, मैं कर दूंगी न. आप अभी सो जाओ और मुझे भी सोने दो.’’
श्यामाजी रजाई से मुंह ढंक कर जाप करने लगीं.
उनींदी मोहिनी अपनी अम्मा के बारे में सोचने लगी कि एक समय अम्मा कितनी सुंदर और सक्रिय थीं. अब झुर्रीदार चेहरा, झुकी हुई कमर, छड़ी का सहारा, उन की जर्जर काया, कान से ऊंचा सुनना, आंखों से कम दिखाई देना, लेकिन इस हालत में भी अपनी अलमारी के लिए आज भी उसी मोहजाल में फंसी हुई हैं. यह भी क्या विडंबना है? शरीर तो साथ छोड़ता जाता है, परंतु मन संसार की छोटीछोटी चीजों में उलझा और जकड़ा रहता है.
वह अलसाई सी बिस्तर पर लेटी थी तभी मंजरी आई और बोली, ‘‘बूआ, आज शाम को थिएटर में बहुत बढि़या नाटक है, मैं ने 2 टिकटें मंगा ली हैं. शाम 5 बजे का शो है. आप तैयार रहना, मैं और आप चलेंगे.’’
‘‘मंजरी, छोड़ो भी थिएटर वगैरह, थोड़ी देर तुम सब के साथ बैठूंगी, कल तो मुझे जाना ही है.’’
मंजरी, बूआ के गले से लिपट कर बोली, ‘‘बूआ प्लीज, चलो न, मेरा एक बार थिएटर देखने का बहुत मन है. मम्मीपापा तो कभी जाते नहीं.’’
मोहिनी चुप ही रही.
‘‘मेरी अच्छी बूआ. तो फिर शाम का प्रोग्राम पक्का रहा न,’’ वह बाहर से दौड़ती हुई फिर लौट कर आई और फुसफुसा कर बोली, ‘‘बूआ, दादी की अलमारी दोपहर में जरूर ठीक कर देना, मुझ से बहुत दिन से कह रही हैं. मुझे यह काम बहुत बोरिंग लगता है.’’
मोहिनी, मंजरी को प्यार से निहारती रही. आज मंजरी में उसे अपना बचपन दिखाई पड़ रहा था.
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