Writer- साहिना टंडन
बात खत्म करने की नीयत से रितेश उठा और बोला, “चल यार चलता हूं, होटल में कमरा लिया हुआ है. रात वही रुकूंगा. कल 12 बजे की फ्लाइट है वापसी की.”
“शर्म नाम की चीज नहीं है तुझ में, अपना घर होते हुए भी क्या कोई होटल में रुकता है. यहां रुक रहा है तू. अब इस के आगे कोई एक्सक्यूज नहीं देना. तू बैठ, मैं अभी आता हूं,” कह कर राजन अपने कमरे की ओर चला गया.
रातभर रितेश करवटें बदलता रहा. सवेरे सवा 5 बजे के करीब वह बाहर निकला तो देखा देविका लौन में पानी दे रही थी. रितेश उसी ओर चला गया.
"गुड मौर्निंग."
"तुम यहां कैसे?"
"तुम से कुछ बात करनी है."
"कुछ बात नहीं बची है करने के लिए. अब वक्त बदल चुका है."
"नहीं देविका, जो वक्त हम जीना चाहते हैं, वो कभी नहीं बदलता. बदलते तो हम खुद हैं, क्योंकि खुद
को परिस्थितियों के अनुसार ढाल लेते हैं. आओ, मेरे साथ उधर बैठें, आज बहुत कुछ है तुम्हें बताने
के लिए."
ना जाने किस भावना के वशीभूत हो कर देविका उस के पीछे चल दी.
कोने में रखी कुरसियों पर दोनों बैठ गए. रितेश ने बोलना शुरू किया. जिस दिन तुम्हें पहली बार
देखा था, उसी दिन से दिल से अपना मान लिया था तुम्हें, पर इजहार करने का न तो कोई मौका मिला और ना ही हिम्मत पड़ी. या यों कहूं कि चाह कर भी मना न कर सका.
"क्यों...?" देविका जैसे शून्य में देखती हुई बोली.
"शायद तुम्हें पता नहीं है कि मेरी बड़ी बहन अनु दी, जो सीमा बूआ के पास है, वो चलनेफिरने में असमर्थ है. उन के जन्म के समय मम्मी जैसे मौत के मुंह से बाहर आई थीं. कितने ही हफ्ते वे बिस्तर में ही रहीं, तभी से अनु दी बूआ के पास ही पलीबढ़ी है और मम्मी जब घर आई थीं, तब भी वे बेहद कमजोर थीं. उन्हे स्वयं देखभाल की सख्त जरूरत थी. ऐसे में अनु दी का ध्यान रखने में वे असक्षम थीं.”
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