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Writer- साहिना टंडन

“नहीं, कहीं बाहर गई हैं. पर बस अभी आती ही होंगी.”

"यह मैं ने खीर बनाई थी. सो, मैं उन के लिए लाई हूं."

“बस, आंटी के लिए, मेरे लिए नहीं.”

“नहीं, ऐसा नहीं है. तुम खा लो,” अचकचा कर बोल उठी वह.

उस की हालत देख और उस की बात सुन कर रितेश की हंसी छूट पड़ी.

“अरे, घबराओ मत. बैठो तो सही, मैं पानी लाता हूं.”

देविका ने कटोरा मेज पर रखा और सोफे पर बैठ गई. उस का दिल सीने में इस कदर धड़क रहा था, जैसे उछल कर बाहर आ जाएगा.

तभी रितेश पानी ले आया. देविका ने एक ही सांस में गिलास खाली कर दिया.

“अच्छा, मैं चलती हूं,” कह कर वे तेजी से वहां से निकलने को हुई.

“अरे देविका, सुनो तो... रुको देविका.”

देविका के कदम वहीं जम गए. मुश्किल से उस ने पीछे घूम कर देखा.

रितेश सधे कदमों से देविका के पास पहुंचा.

देविका की पलकें मानो टनों भरी हो उठीं. वे खामोश पर खूबसूरत पल शायद उन दोनों के लिए उन अनमोल मोतियों के समान हो चुके थे, जिन्हें वे सदा सहेज कर रखना चाहते थे. ऐसा लग रहा था जैसे वक्त वहीं थम गया हो.

तभी रितेश ने खुद को संभाला.

“ओ, हां, ठीक है देविका, मम्मी आएंगी तो मैं उन्हें बता दूंगा कि तुम आई थी.”

यह सुन कर देविका की नजरें ऊपर उठीं, तो फिर वह मुसकरा कर वापस लौट गई.

एक दिन रितेश को रास्ते में देविका के पिता मोहन मिल गए थे. रितेश ने उन्हें घर छोड़ने के लिए अपने स्कूटर पर बिठा लिया.

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तब बातों ही बातों में उन्होंने रितेश से देविका की पढ़ाई में एक कठिन विषय का जिक्र किया, तो रितेश ने कहा कि वह एक दिन घर आ कर कुछ जरूरी नोट्स दे देगा, जिस से देविका की काफी मदद हो जाएगी.

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