लेखिका: सुरभि शर्मा
मैं ने कदम आगे बढ़ाए और दूसरी गली में पहुंच गई. मैं ने झांक कर देखा, वह गली भी खाली थी. मैं उस गली में आगे बढ़ गई और गली के दूसरे कोने पर पहुंच कर आगे का जायजा ले ही रही थी कि मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मेरे पीछे कोई है. मैं ने शायद किसी के पैरों की आवाज सुनी है. मैं इतना डर गई कि पीछे मुड़ कर देखने की भी मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी. बुत सी बन वहीं खड़ी रह गई. वह आवाज मेरे और पास आई. अब मुझे यकीन हो चला था कि मेरे पीछे कोई तो है. में ने डरते हुए पीछे देखा. वहां वाकई कोई था.
‘‘डरना मत, चिल्लाना मत, मैं कुछ नहीं करूंगा.’’
वह मेरी ही हमउम्र लड़का था. लंबा, अच्छी कदकाठी का, काली आंखों वाला. चिल्लाने की मुझ में हिम्मत थी भी नहीं. डर से मेरे हाथपैर ठंडे हो चुके थे.
‘‘मैं दंगाई नहीं हूं. मैं बाजार में फंसा था. घर जाना चाहता हूं. क्या तुम भी घर जा रही हो?’’
मुझ से कुछ भी बोलते नहीं बना, तो उस ने फिर पूछा.
‘‘कुछ तो बोलो. डरो मत. मैं तुम्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचाऊंगा.’’
मैं जवाब में सिर्फ ‘हां’ कह पाई.
‘‘तुम्हारा घर कहां है. मेरे साथ चलो. इस तरह अकेले पकड़ी जाओगी,’’ कह कर उस ने अपना हाथ बढ़ा कर मेरा हाथ पकड़ना चाहा. मैं ने अपना हाथ पीछे खींच लिया.
‘‘अच्छा ठीक है. बस, मेरे साथ रहो,’’ वह बोला.
पहली बार मैं ने हिम्मत कर के, बस, इतना कहा, ‘‘मैं खुद से चली जाऊंगी.’’ और अगली गली में जाने के इरादे से नजर डाली.
‘‘तुम जहां जाने की सोच रही हो वहां से मैं बड़ी मुश्किल से बच कर आया हूं, वहां लोग खड़े हैं, पकड़ी गई तो मारी जाओगी. बेहतर यही है कि मेरे साथ चलो. मैं तुम्हें घर पहुंचा दूंगा, भरोसा रखो.’’
मैं ने एक नजर उस की आंखों में डाली, क्या वह सच बोल रहा है? क्या उस पर भरोसा किया जा सकता है? मुझे इस तरह अपनी तरफ देखते हुए उस ने कहा, ‘‘मैं मनसुख चाचा की दुकान के बाद 2 दुकानें छोड़ कर जो घर है, उस में रहता हूं. तुम कहां रहती हो?’’
मनसुख चाचा की दुकान सब से मशहूर हलवाई की दुकान है. मैं समझ नहीं पाई कि जवाब दूं या नहीं, जवाब न पा कर उस ने दोबारा पूछा, ‘‘तुम कहां रहती हो?’’ तो मैं ने बता दिया, ‘‘तुम दरी वालों का घर जानते हो, वह घर हमारा है. मनसुख चाचा की दुकान के 2 गली पीछे. हमारे घर में दरी बनाने का काम किया जाता है, इसलिए सब दरीवालों का घर कहते हैं.’’
‘‘हां, जानता हूं, मैं तुम्हें पहुंचा दूंगा. बस मेरे साथ रहो.’’
डर से मेरे सोचने समझने की शक्ति खत्म हो गई थी. सहीगलत समझ नहीं आ रहा था. बस, इतना समझ आया कि वह मुझे मेरे घर पहुंचाने की बात कह रहा था.
वह सड़क के दूसरी तरफ जाने लगा और मैं उस के पीछे चल दी. चलतेचलते उस ने बताया कि उस का नाम अखिल है. उस ने कहा, ‘‘कल से मेन बाजार में फंसा हुआ था. वहां हालात इस से बदतर हैं. आज हिम्मत कर के घर के लिए निकला हूं.’’ फिर बोला, ‘‘देखो, मेरा घर तुम्हारे घर से पहले आएगा, इसलिए मैं अपने घरवालों को सूचित कर के कि मैं सहीसलामत हूं, फिर तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ आऊंगा. तुम्हारा नाम क्या है?’’
‘‘सांची.’’ मैं हां या न कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं थी. बस, इतना ही कह पाई और चुपचाप पीछे चलती रही.
कुछ दूर छिपतेछिपाते गलियों से निकलते हुए हम एक घर के सामने रुके. उस ने दरवाजे पर दस्तक दी. अंदर से कोई जवाब नहीं आया. उस ने फिर से दस्तक दी. और अपना नाम बताया. जैसे ही दरवाजा खुला, हम तूफान के जैसे अंदर दाखिल हुए और दरवाजा बंद हो गया. अंदर अखिल का परिवार था. सब उसे सहीसलामत देख कर बहुत खुश थे. फिर सब ने मेरी तरफ देखा. अखिल ने सारी कहानी कह सुनाई.
‘‘तुम आज रात यहीं रुक जाओ. अंधेरा भी हो गया है. कल सुबह हम तुम्हें छोड़ आएंगे,’’ अखिल की मां ने कहा.
‘‘जी शुक्रिया, मेरा घर अब पास ही है, मैं चली जाऊंगी,’’ मैं ने कहा और चलने के लिए दरवाजे की तरफ मुड़ी.
मैं चाहती थी कि अखिल मेरे साथ जाए पर जब उस की मां ने रात रुकने के लिए कहा तो मैं कुछ कह नहीं पाई.‘‘नहीं, अकेले मत जाओ. अखिल तुम्हें छोड़ आएगा,’’ अखिल के पिता ने कहा.
हम ने घरवालों से विदा ली और फिर से सड़क पर आ गए.
हम कुछ दूर चले ही थे कि अखिल ने मेरा हाथ पकड़ लिया. मैं ने गुस्से से उस की तरफ देखा, तो उस ने समझते हुए कहा, ‘‘तुम पीछे रह जाती हो, इसलिए. और अब हमें सड़क पार करनी है, पीछे रह गई, तो हम अलग हो जाएंगे.’’
मैं ने चुप रहना ही बेहतर समझा. हम ने कुछ कदम आगे बढ़ाए ही थे कि हमें हमारी तरफ आती हुई कुछ आवाजें सुनाई दीं. हम ने अपने कदम वापस लिए और भाग कर एक टूटी हुई कार के पीछे शरण ली. अखिल ने मेरा हाथ अपने दोनों हाथों से पकड़ा हुआ था और मैं अपना चेहरा उस के सीने में छिपाए बैठी थी. वे 3-4 लोग थे जो भाग रहे थे. उन के पीछे 3-4 पुलिस वाले भाग रहे थे.
अखिल के मैं इतना करीब बैठी थी कि मुझे उस की धड़कनें साफ सुनाई दे रही थीं. उस का दिल जोरों से धड़क रहा था और सांसें बहुत तेज चल रही थीं. यह अखिल की जिम्मेदारी नहीं थी कि वह मुझे घर पहुंचाए, पर फिर भी न जाने क्यों उस ने अपनी जान का जोखिम लिया. मैं पहली बार अपनेआप को महफूज महसूस कर रही थी.
वे आवाजें दूर चली गईं. फिर सुनाई देना बंद हो गईं. हम ने एकदूसरे की तरफ देखा और हमारी नजरें उलझ कर रह गईं.
अपनेआप को संयत कर के उस ने कहा, ‘‘चलो, हमें निकलना होगा.’’ पर अब मुझे पहुंचने की जल्दी नहीं थी.
वे आवाजें फिर नहीं आईं और हम छिपतेछिपाते, रुकतेरुकाते हुए घर पहुंचे. घर के दरवाजे पर मैं ने धीरे से मां को आवाज लगाई. कुछ ही पलों में दरवाजा खुल गया. हम अंदर चले गए. सब सहीसलामत घर पर ही थे. उन्हें सिर्फ मेरी फिक्र थी. मैं ने उन्हें बताया कि किस तरह अखिल ने अपनी परवा न करते हुए मुझे घर तक पहुंचाया.
सब अखिल के बहुत शुक्रगुजार थे. अखिल हम से उसी वक्त विदा ले कर अपने घर के लिए निकल गया. हम उसे रोक नहीं पाए. खाना खा कर मैं सोने चली गई. घर में सब बहुत खुश थे. पर मुझे फिक्र थी अखिल की, क्या वह ठीक से घर पहुंचा होगा? क्या वे दंगाई फिर आए होंगे? मेरे सामने अखिल का चेहरा घूम रहा था. मेरा मन उसी की फिक्र कर रहा था. मन बारबार सोच रहा था कहीं उसे कुछ हो न गया हो. लगता था उस से कोई अनकहा रिश्ता जुड़ गया था.