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मुझे पूरे चौबीस घंटे हो चुके थे उस दुकान में छिपे हुए. सड़कों पर सन्नाटा पसरा हुआ था. इतनी शांति थी कि हवा की आवाज साफ सुनाई दे रही थी जो आम दिनों में दोपहर के इस वक्त सुनाई देना नामुमकिन था. बस, बीचबीच में दंगाइयों का शोर आता था और जैसेजैसे आवाजें पास आती जातीं, दिल की धड़कनें बढ़ने लगतीं और लगता जीवन का अंत अब बस करीब ही है. फिर, वे आवाजें दुकान के सामने से होते हुए दूर निकल जातीं.

हमारा शहर हमेशा ऐसा नहीं था या यह कहें कि कभी ऐसा नहीं था. पर चौबीस घंटे पहले हुई छोटी सी बात यह विकराल रूप ले लेगी, यह तो सोच से भी परे है.

मैं अपने घर से दुकान से सामान लाने के लिए निकली थी जो सिर्फ 5 मिनट की दूरी पर है. दुकान पहुंचने पर पता चला कि मेन मार्केट में झगड़ा हुआ है और एक लड़के की मौत हो गई है. पूरी बात पता करने पर यह बात सामने आई कि 2 लड़कों में किसी बात को लेकर झगड़ा हो रहा था. धीरेधीरे बात इतनी बढ़ गई कि हाथापाई होने लगी. भीड़ इकट्ठी होने लगी और 2 गुटों में बंट गई. उन्हीं में से एक लड़का इतना लहूलुहान हुआ कि उस की मौके पर ही मौत हो गई. उस लड़के को मरा देख दूसरे गुट के लोग वहां से भाग निकले. तब से ही दंगाई उन सब को ढूंढ़ रहे हैं और बीच में आने वाले हर किसी को मार रहे हैं.

मैं दुकान पर खड़ी बातें सुन ही रही थी कि कहीं से शोर सुनाई दिया, जिस की आवाज बढ़ती जा रही थी. दुकानदार को लगा कि दंगाई हैं. उस ने बाहर खड़े लोगों को दुकान के अंदर ले कर शटर बंद कर दिया. मैं भी तेजी से दुकान के अंदर घुस गई और तब से इसी इंतजार में हूं कि यह सब कब खत्म होगा और हम सब अपने घर जा सकेंगे.

तब से कभी दंगाइयों की आवाजें आती हैं तो कभी फौजियों की जो आगाह करते हैं कि जो जहां है वहीं रहे, बाहर न निकले. और ऐसे ही बैठेबैठे चौबीस घंटे निकल गए पर हालात में कोई सुधार नहीं हुआ.

घरवालों के बारे में सोचती, तो चिंता बढ़ जाती. न मुझे उन की खबर थी, न उन्हें मेरी. जब घर से निकली थी तो घर पर कोई नहीं था. सब अपनेअपने काम से बाहर गए हुए थे. पता नहीं कोई घर लौटा भी होगा या नहीं. कहां होंगे सब, उन्हें कुछ हो न गया हो, ऐसी बातें सोच कर मैं सहम जाती. मन होता,  अभी घर जा कर उन्हें देख लूं, ज्यादा दूर तो है नहीं, पर जान की सलामती की सोच कर जहां की तहां बैठी रही.

शाम के 5 बज रहे थे. 28 घंटे हो चुके थे. पर बाहर के हालात में कोई सुधार नहीं था. बढ़ते वक्त के साथ मन भी ज्यादा विचलित होता जा रहा था. दुकान वाले भैया से जब शहर के हालात पता करने को कहा, तो उन्होंने फिर वही जवाब दिया, ‘‘बेटी, फोन अभी चालू नहीं हुए हैं, सारी लाइनें बंद हैं.’’

‘‘पर, यहां पर कब तक ऐसे ही बैठे रहेंगे?’’ एक ग्राहक ने दुकानदार से कहा.

‘‘बाहर जाना तो मौत को बुलाना है, ऐसा करने की तो सोच भी नहीं सकते,’’ एक महिला ने कहा जो मेरी मां की उम्र की होंगी. बीचबीच में अपने घरवालों के बारे में याद कर के रो लेतीं, फिर थोड़ी देर में चुप हो जातीं. सब अपने में इतना खोए हुए थे कि किसी ने किसी को चुप कराने का जतन नहीं किया.

‘‘पर अब तो सड़कों पर फौज आ गई है, अब तक तो सब ठीक हो गया होगा,’’ मैं ने कहा.

‘‘जल्दबाजी ठीक नहीं है, कहीं रास्ते में दंगाई मिल गए तो जान जा सकती है,’’ दुकान वाले भैया ने आगे कहा, ‘‘जैसे ही लाइनें चालू होंगी, मैं तुम्हारे घर फोन कर दूंगा. तब तक तुम यहां रहो. तुम यहां पूरी तरह महफूज हो.’’

‘‘मुझे घरवालों से मिलना है, पता नहीं किस हाल में होंगे, घर पहुंचे भी होंगे या नहीं,’’ मैं फफकफफक कर रोने लगी.

शाम को 6 बजे मैं ने तय कर लिया कि कुछ भी हो, मुझे अब घर पहुंचना ही होगा. मैं ने सब को समझाया कि मुझे जाने दें, मैं अब और हालात सुधरने का इंतजार नहीं कर सकती. सब से विदा ले कर और दुकान वाले भैया को धन्यवाद कर के मैं वहां से निकल कर सड़क पर आ गई. दुकान के बाहर आते ही सड़क पर पसरे सन्नाटे को देख कर एक बार तो मेरी सांसें रुक गईं और मैं जहां की तहां खड़ी रह गई. समझ नहीं आया कि कदम आगे बढ़ाऊं या नहीं. फिर घरवालों को याद कर के आंखें नम हो गईं.

सड़क पर हर तरफ ईंट, पत्थर और कांच के टुकड़े बिखरे हुए थे. मैं दुकानों के सहारे चलते हुए चुपके से गली के कोने तक आई. मैं ने चारों तरफ ध्यान से देखा, हर गली में एक ही मंजर था. अंधेरा भी थोड़ाथोड़ा घिरने लगा था.

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