‘हांऽआंऽ, यों ही, धीरेधीरे कुतुबमीनार भी चढ़ ली जाएगी,’ पास से किसी की थकी सी आवाज सुनाई दी. कोई जवाब न मिलने पर वही आवाज अब ऐसी आई, ‘बाज के पिंजड़े के अंदर बंद कर के रख दिया है.’
तब जा कर एक औरत के खिलखिलाने की आवाज आई. सब मीनार में घूमते हुए ऊपर चढ़ रहे थे. पास के खांचे से रोशनी अंदर पड़ी. सामने एक अधेड़ उम्र का आदमी था. ठुड्डी पर लकदक, झक्क सफेद दाढ़ी लटकी हुई थी. उस के साथ एक जवान औरत चमकीले कपड़े पहने ऊपर चढ़ रही थी.
‘बड़ी हंसी आ रही है. आप को ये सब अच्छा लग रहा है?’
‘कुछ नहीं. बाज के नाम से सामने खाका खिंच गया बाज का, बस.’
‘क्यों? हम में बाज नहीं दिख पाता आप को.’
‘न, न, जानू. मैं ऐसा क्यों सोचूंगी. एकदम नई केतकी हो तुम.’
फिर अंधेरा सा छा गया. सभी संभलसंभल कर चल रहे थे. थोड़ाबहुत जो चलना था, वह भी बंद सा हो गया, ऊपर से पीछे के लोगों का बड़बड़ाना शुरू हो गया. मैं गांव से आए एक बड़े झुंड के बीच में फंसा हुआ सा था.
‘बेहतर कि आंख कानी हो, न कि रास्ता काना. मगर आप तो खुश हैं न?’ फिर चलना रुक गया था.
‘जम कर लुत्फ उठाइए. बड़ा कह रही थीं, कुतुबमीनार जाना है, कुतुबमीनार ले चलिए. लीजिए, ले आए.’
औरत ने भी चुहचुहाती आवाज में कहा, ‘हां, लुत्फ तो खूब उठा रहे हैं हम. बाहर से मीनार सुंदर थी. एक बार ऊपर पहुंच जाएं, तो नजारा भी सुंदर नजर आएगा. मगर तुम कैसे समझोगे ये सब? मक्खी क्या समझे परवाने की गत?’