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छप्पर जैसी भौंहें मन में ये भ्रम डाल सकती थीं कि बंदा तो यह ‘सिनिक’ होगा. लेकिन वह छप्पर जैसी भौंहें और उस की वह दाढ़ी जो उस ने सिर्फ ठुड्डी में ही उगने दी थी, बातबात में ऊपरनीचे होती थीं और केवल उन के हिलने का अध्ययन कर के आदमी समझ सकता था कि किस हद तक यह इंसान अपने चारों तरफ होने वाली घटनाओं में शामिल है. कभी आंखों में 2 दीप जल जाते, कभी मुसकान उभरती, कभी उड़ जाती और मुंह बन जाता. जीवन को यह आदमी पूरी शिद्दत से जी रहा था.

फिरदौस ने हिंदी में पूछा था, ‘आप को हमारी दिल्ली कैसी लग रही है?’

उन दिनों मेरा ऐक्सेंट तकलीफदेह तो था ही, हिंदी भाषा भी कुल 20 शब्दों में सिकुड़ कर रह गई थी. सब भूल गया था. ‘अभी आई हूं, मालूम नहीं’ कह कर कंधा उचका दिया था. लेकिन उसे मेरे जवाब में कहां दिलचस्पी थी. उसे तो बस मेरा उच्चारण सुनना था. आंखें सिकोड़ कर हंस दिया. एक नजर दोस्तों पर फेरी, फिर मेरा चेहरा हाथों के बीच ले कर हलका सा थप्पड़ जड़ दिया.

‘सुनो तो, हाय, कितनी प्यारी लगती है हमारी हिंदी इस के मुंह से.’

इसी बात पर देर तक हंसता रहा. ढाबे में शरद को हटा कर मेरी बगल की कुरसी में बैठ गया. मुझे पास खींच कर मिमियाती आवाज में बोला, ‘ये कहां आ गई हूं मैं? यही सोच रहा है न तू?’ फिर हंसने लगा. अब साथ में और भी हंस रहे थे. इतनी सादगी से हंस रहा था कि मुझे उस का हंसना खल नहीं रहा था.

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