घास उगती है, गौरैया कुछ देर जमीन पर फुदकती हैं, उड़ान भर लेती हैं, समुद्र की लहरें भी उठती हैं और किनारे पर सिर फोड़, मिट जाती हैं. मेरे पास मेरे स्पंज हैं. मैं उन्हीं को बढ़ते हुए, फिर मरते हुए देखता हूं. उन की औलाद को भी बढ़ते हुए और मरते हुए देखूंगा. बेशक, मैं भी एक दिन नहीं रहूंगा. समय की ईमानदार गति चुपचाप और सस्नेह देखना मुझे मंजूर है.
पानी में 200 फुट नीचे, मालिबू के समुद्रतट पर, मेरी लैब की टीम नीले और पीले स्पंजों की प्रगति को रिकौर्ड करने आई थी. तसवीरें और अन्य परीक्षणों के लिए सैंपल मेरे छात्र ले रहे थे. मैं सिर्फ स्पंज देखने आया था, उन से मिलने आया था.
आज हम ने एक लघु सफलता हासिल की है. 2 साल से मैं और मेरे छात्र अचंभित थे, विचारमग्न थे, विभिन्न योजनाओं को कार्यान्वित करने में व्यस्त थे. हम ने नीले स्पंजों की कालोनी में एक इकलौता पीला स्पंज छोड़ दिया था. नीला स्पंज, जिन्हें हम वैज्ञानिक एसीजी के नाम से बुलाते हैं, ऐसा पदार्थ बनाता है जो सूअरों में पाचक ग्रंथि के कैंसरयुक्त सैल को मार सकता है. हमारी कोशिशें पीले और नीले स्पंज के संकरण में लगी थीं. उम्मीद यह थी कि ऐसा संकर इंसानों के कैंसर के इलाज में प्रभावशाली होगा. लेकिन शुरुआत में ही इन स्पंजों ने एकदूसरे को कबूल नहीं किया. नीले स्पंज आपस में खुश थे, पीले स्पंज पर ध्यान नहीं देते थे. या तो पीला स्पंज समय के साथ मर जाता था या फिर उस में कल्ले फूटने लगते थे, मतलब वह अपनी ही प्रतिलिपियां बनाने लगता था. आज सवेरे ब्रायन, मेरे छात्र, ने रिपोर्ट करने के लिए फोन किया जिस का हम 2 साल से इंतजार कर रहे थे. नीले स्पंजों में से 1 स्पंज ने ऐसी औलाद पैदा की जो नीली नहीं थी.
जलमग्न, मैं रेतीले तट के निकट तैर रहा था. सामने एक टीला दिख रहा था. टीले के पीछे नीले स्पंजों का बड़ा मैदान था. इंडिगोलैंड नाम रखा था मेरे छात्रों ने उस का. जल्द ही वह इकलौता पीला स्पंज भी नजर आने लगा. मैं स्पंजों के मैदान के काफी समीप आ गया और देर तक वहीं तैरता रहा. जानता था उन्हें अच्छी तरह. एक जीववैज्ञानिक को अपने जीवित सैंपल को समझना और उन से एक न्यूनतम संबंध बनाए रख पाना आता है. मैं ने स्पंजों पर उंगलियां फिराईं और वापस जाने को मुड़ गया. धीमेधीमे मंडराती हुई, चुस्त, तनी, सजीसंवरी कैल्प घास के वन में खरामाखरामा तैरती हुई रंगीन मछलियों का झुंड सामने से निकला जा रहा था. काफी नाजुक और खूबसूरत, फिर भी कमजोर नहीं थी यह दुनिया. अंतर्जातीय दृश्य पल में बिगड़ कर फिर पल में ठीक हो जाते थे. आंखों को यही लगता कि कुछ भी तो नहीं बिगड़ा है यहां.
मालिबू के समुद्रतट पर बैठे मैं देख रहा हूं सूर्यास्त को, प्रशांत सागर को और दहकते पानी को. आज के दिन के बारे में सोच रहा हूं. संतुष्ट हूं. लगता है हमारे यत्न सफल होंगे. ऐसा भी हो सकता है कि ये संकर वे न निकलें जिन की हमें तलाश है, लेकिन मुझे खुशी इस बात की है कि कम से कम हम प्रकृति से कुछ तो रिआयत ले पाए.
सामने एक हवासील सीधे नीचे गिरा और पानी को चीरते हुए अंदर घुस गया. वहां पर कई सारी धधकती तरंगें पैदा हो गई हैं. मैं तरंगों का छली खेल देख रहा हूं और सोच रहा हूं कि आज की खबर में कुछ दिल छूने वाली बात तो थी. क्या थी? अचानक फिरदौस का खयाल आया. मन किया कि उसे बता पाऊं कि पानी के नीचे दुनिया कितनी अद्भुत है. मैं तरंगों को तब तक देखता रहा जब तक वे पूरी तरह मिट नहीं गईं. मन में उदासी उग आई. पानी के नीचे की दुनिया के बारे में बताऊंगा तो वह पानी के बाहर की दुनिया के बारे में जरूर पूछेगा. कैसे बताऊंगा उसे कि आदमियों की दुनिया में कुछ नहीं बदला है.
फिरदौस से मुझे मिले एक उम्र बीत गई है. मैं तब 18 साल का था, स्टैनफर्ड जाने वाला था. मस्त बंदा था फिरदौस. पैदाइशी जिज्ञासु था. हमेशा कुछ करने के लिए छटपटाता रहता था. मुझ से 2-1 साल बड़ा था. अब 43 का होता या 44 का. कई साल पहले मर गया बेचारा.
अपनी हाईस्कूल की पढ़ाई पूरी होने के एकदम बाद मैं ने तय किया कि चूंकि मेरे मांबाप हमेशा अपने को दिल्ली वाला कहते रहते थे, तो क्यों न दिल्ली जाऊं, देखूं, घूम आऊं. वैसे मेरे भाई की और मेरी पैदाइश दिल्ली की ही है. सिर्फ मेरी छोटी बहन लौस ऐंजिलिस में पैदा हुई थी. मैं 8 साल का था जब हम लोग अमेरिका आए. एक दशक बाद जब मैं भारत वापस आया तो शुरूशुरू में मुझे ऐसा बिलकुल नहीं लगा कि मेरा इस जगह से किसी भी तरह का वास्ता है. जहाज से उतरा ही था और उलटे पैरों वापस लौटने की सोच रहा था कि मेरे चचेरे भाई शरद, जो अहमदाबाद में आर्किटैक्चर के स्टूडैंट थे, ने मुझे आने का न्योता दिया था.
‘अरे, तुम एक बार आओ तो. मैं तुम्हें अपना शहर दिखाऊंगा. अहमदाबाद से मेरे दोस्त भी आ रहे हैं, फील्ड ट्रिप के लिए, मध्यकालीन स्मारकों का अध्ययन करने. डरा दिया न? हाहा नौर्मल हैं हम. वो शेर हैं जो मजे करते हैं, मजे, क्या बोलते हो तुम अमेरिकन लोग… डूड्स हैं. सिर्फ मेरा दोस्त, फिरदौस, अध्ययन करेगा. उसे तो आखिर दिल्ली बदलनी है, हाहा, पागल है…मगर मस्त है, ऐंटरटेनर टाइप है, हंसाता रहता है.’
14 अगस्त, 1981 को मैं जिस टैक्सी में बैठा था, वह भट्ठी सी थी. बाहर आसमान से भी आग बरस रही थी. सूरज की रोशनी से आंखें चुंधिया रही थीं. लेकिन जब टैक्सी रुकी और मुझे शरद दिखाई दिया, हम मिले और दौड़ के उस ने मुझे अपने साथियों से मिलाया, उस वक्त मेरी सब आशंकाएं उड़नछू हो गईं. 9 या 10 खुशदिल लड़के, मिलते ही हम दोस्त बन गए. फिरदौस भी उन में था, उस पर ध्यान न जाना असंभव था. उस का
20 वर्षीय चेहरा महज चेहरा नहीं एक ग्रंथ था. दोस्तों पर चालें चलचल कर, उन की खिंचाई करकर के, जितनी बार दिनभर में वह ठट्ठा मार कर हंसा होगा, उस के चेहरे पर खिंचीं लकीरें उस सब का हिसाब रख रही थीं.
आगे पढ़ें- लेकिन वह छप्पर जैसी भौंहें और उस की….