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लेखिक-  डा. रंजना जायसवाल

"कितनी बार समझाया था तुझे इकलौती लड़की से शादी मत कर पर तुझ पर तो प्यार का भूत सवार था. न आगे नाथ न पीछे पगहा... मांबाप के मरने के बाद तेरी ससुराल भी खत्म हो जाएगी...सुखदुख में खड़ा होने वाला भी कोई न रह जाएगा. हम कोई जिंदगीभर जिंदा थोड़ी बैठे रहेंगे."

"मां, कैसी बात करती हो, मैं भी तो इकलौता ही हूं.""तेरी बात अलग है, तू लड़का है. अपूर्वा को देख अपने साथ दहेज में कुछ भी न लाई पर मांबाप की जिम्मेदारी जरूर ले आई."

"मां, ऐसा न कहो, यह बात तो हम पहले दिन से जानते थे. वैसे भी अपूर्वा से शादी का निर्णय मेरा था फिर दानदहेज की बात कहां से आ गई. अपूर्वा ने शादी के पहले ही मुझे स्पष्ट शब्दों में यह बात कह दी थी.शादी के बाद उस के मातापिता की जिम्मेदारी वही उठाएगी."

साधनाजी का चेहरा गुस्से से तमतमा रहा था. समर की हिम्मत नहीं पड़ रही थी कि वह उन की तरफ नजर उठा कर देखे."वाह रे जमाना, हमारे जमाने में लड़की के मांबाप बेटी के घर का पानी तक नहीं पीते थे और यह साहब अपने ससुर को यहां लाने को सोच रहे हैं. क्या कहेंगे लोग..."

"मां, लोगों की मैं परवाह नहीं करता. जब पापा बीमार पड़े थे तो अपूर्वा के पापा ने कितनी मदद की थी भूला नहीं हूं मैं… जिन लोगों की आप बात कर रही हैं वे तो झांकने भी नहीं आए थे. मां, जैसे सिक्के के दो पहलू होते हैं, वैसे हर बात के भी तीन पहलू होते है आप का, उन का और सच. कभी सुनीसुनाई बात पर भरोसा मत कीजिए."

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