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लेखिक-  डा. रंजना जायसवाल

"मां, अपने कमरें में ही रहेंगी, जानती हूं पापा का आना उन्हें अच्छा नहीं लगेगा. इसलिए उन के कमरे से थोड़ा दूर ही रखा है जिस से बहुत ज्यादा आमनासामना न हो."जब रहना एक ही घर में है तो क्या दूर क्या पास…"

"समर, समझती हूं यह सब इतना आसान नहीं है पर मैं भी क्या कर सकती हूं. मैं ने तो शादी के पहले ही…" "एक ही बात कितनी बार कहोगी..." समर न जाने क्यों झुंझला सा गया, "मां को बताया है तुम ने?"

"हां, उन से इतना कहा है कि कल पापा के पास जा रही हूं." "और उन को साथ लाने की बात?" "नहीं." "वही तो मैं सोचूं, आज शाम को मां इतनी चुपचुप क्यों थीं. खाना भी ठीक से नहीं खा रही थीं." "समर, मुझे लगता है कि उन्हें अंदाजा है. आज जब मैं पापा के लिए कमरा सही कर रही थी तो आसपास ही घूम रही थीं. एक अजीब सी बेचैनी थी उन के व्यवहार में."

"कुछ कहा उन्होंने?" "कहा तो कुछ भी नहीं पर उन का मौन बहुत कुछ कह रहा था. समर, मैं समझती हूं इतना आसान नहीं है यह सब पर और कोई रास्ता नहीं...मेरे फैसले में तुम हो न मेरे साथ?" अपूर्वा ने समर की आंखों में अपने प्रश्न का जवाब ढूंढ़ने की कोशिश की...समर ने अपूर्वा के चेहरे पर लटक आई अलकों को अपनी उंगलियों से पीछे करते हुए कहा,"मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूं."

रात गहराती जा रही थी. दोनों की आंखों मे नींद नहीं थी. एक अजीब सी कशमकश दोनो के मनमस्तिष्क में घूम रही थी. आने वाले दिन न जाने कैसे होंगे, अपूर्वा साधनाजी के उठने से पहले ही मायके के लिए निकल गई. शादी के बाद ऐसा शायद उस ने पहली बार किया था. घर का कोई भी सदस्य साधनाजी से कहे बिना नहीं जाता था पर न जाने क्यों एक अनजान सा डर उस को जकड़े हुआ था.

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