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लेखिक डा. रंजना जायसवाल

अपूर्वा इन दिनों चुप सी रहने लगी थी. समर जानता था उस चुप्पी की वजह पर उस चुप्पी को तोड़ कर उस तक पहुंच पाना इन दिनों उसे मुमकिन लग रहा था.

घर के कामों को निबटा कर अपूर्वा कमरे में दाखिल हुई,”सो गए क्या?” “नहीं तो…तुम्हारा ही इंतजार कर रहा था.” “कुछ कहना था तुम से..!” “हां बोलो, तुम्हें बात करने के लिए कब से इजाजत की जरूरत पड़ गई.” कमरे की लाइट बंद थी पर चांदनी रात में रौशनी परदे से छन कर आ रही थी. कमरे के बाहर नीम की डालियों पर चांद अटका हुआ था. हवा से उड़ते परदे से लुकाछिपी करती रौशनी में अपूर्वा का चेहरा साफसाफ दिखाई दे रहा था. इन बीते  1 महीने में उस का नूर न जाने कहां खो गया था. हिरनी सी आंखों की चंचलता न जाने कुलांचे मारते उदासी के किस अरण्य में गुम हो गई थी.रूखेसूखे बाल, माथे पर एक छोटी सी बिंदी, समर न जाने क्यों हिल सा गया. अपूर्वा सिर्फ उस की पत्नी नहीं…उस का प्यार… उस की दोस्त भी थी. वह उस का दर्द अच्छी तरह से समझता था… आखिर उस दर्द को पिछले साल उस ने भी तो झेला था.

शायद ही कोई ऐसा दिन हो जब अपूर्वा ने अपनी मां से बात न की हो.औफिस हो या घर ठीक 11 बजे उसे मां को फोन करना ही होता था. मां को भी आदत सी हो गई थी. 10-15 मिनट भी आगेपीछे होता तो वे खुद ही फोन कर देतीं, कई बार तो घबरा कर उन्होंने समर को भी फोन मिला दिया था.

“समर बेटा, सब ठीक है न? अपूर्वा का आज फोन नहीं आया, कहीं तुम लोगों की…” और समर खिलखिला कर हंस पड़ता,”मम्मी, मुसीबत मोल लेनी है क्या मुझे, आप की बेटी से कोई लड़ सकता है क्या?” “वह आज उस का फोन नहीं आया न… कई बार मिला चुकी हूं, पता नहीं क्यों बंद बता रहा है.”

” दरअसल, वह मीटिंग में होगी, आज उस की कोई महत्त्वपूर्ण मीटिंग थी इसलिए फोन बंद है. आप चिंता न करें जैसे ही फ्री होती है मैं उस से कहता हूं आप से बात करने के लिए…” “ठीक है बेटा.”

और वे खट से फोन काट देतीं, कभीकभी बड़ा अजीब लगता था.आखिर यह मांबेटी रोजरोज क्या बात करती होंगी. अपूर्वा टूट सी गई थी, मां के अंतिम दर्शन करने की अनुमति नहीं मिली थी. उसे हमेशा यही लगता बस फोन की घंटी बजेगी और मां बोलेगी… “अप्पू, कहां थी बेटा सब ठीक है न..”

पर मां नहीं थी, कही नहीं थी. वे तो सफेद बादलों के पार सारे बंधन तोड़ कर दूर बहुत दूर चली गई थी. क्या इतना आसान था उन का जाना… अस्पताल में मुंह में मास्क लगाए अपनी उखड़ती हुई सांसों को संभालने की उन की नाकाम कोशिश ने उन के हौसले को टूटने नहीं दिया था पर उन की सांसों की लड़ी एक दिन टूट ही गई.

हर बार वह यही कहती,”समर बेटा, अपूर्वा को संभालो, मैं बिलकुल ठीक हूं. जल्दी घर वापस आ जाऊंगी. फिर हम सब बोटिंग करने चलेंगे, अब यहां घाट पर बहुत साफ सफाई रहने लगी है.” उन्हें क्या पता था हम नाव पर जाएंगे उन के साथ पर उन के जीवित रहते नहीं उन की मौत के बाद… अपूर्वा हमेशा बताती थी कि मां बहुत अच्छा तैरना जानती थीं. मां आज भी तैर रही थीं इस क्षणभंगुर दुनिया को छोड़ कर सारे बंधन को तोड़ कर वे पानी के प्रवाह के साथ दूर बहुत दूर तैरती बहती जा रही थीं. समर विचारों के भंवर में डूबउतर रहा था. इंसान जीवनभर ख्वाहिशों के बोझ तले डूबताउतराता रहता है, देखा जाए यह ख्वाहिशों का बोझ उतर जाए तो वह ऐसे ही पानी में उतराता रहेगा जैसे आज मम्मीजी के अस्थि अवशेष पानी पर तैर रहे थे. न जाने क्या सोच कर समर की आंखें भर आई थीं. पिछले साल इसी तरह उस ने नदी के शीतल जल में अपने पापा के अवशेष को इन्हीं हाथों से प्रवाहित किया था.

लौबी में लगी घड़ी ने 11 बजने का संकेत दिया. अपूर्वा की आंखें घड़ी की तरफ चली गई और उस की आंखों से आंसू की बूंदें टपक गईं. “समर, कल मैं पापा के पास जा रही हूं.” “यों अचानक… अपूर्वा इस माहौल में घर से निकलना ठीक नहीं, मैं 2 लोगों को खो चुका हूं. बस अब और नहीं…”

 

“समर, वह पापा…” “क्या हुआ अपूर्वा, सब ठीक है न? अभी परसों ही तो बात हुई थी मेरी उन से…”समर न जाने क्यों बेचैन हो गया, वह अपूर्वा के पास सरक आया. उस ने अपूर्वा के हाथों को अपने हाथों में ले लिया. अपूर्वा की रूलाई छूट गई.”समर, वह आज बगल वाली जूली आंटी का फोन आया था.”

“जूली आंटी? तो क्या हुआ कोई खास बात?””आज सुबह चाय बनाते वक्त पापा के हाथों से गरम चाय का भगोना छूट गया.””अरे…जले तो नहीं?””हाथ पर फफोला पड़ गया है.””ओह…””आज शाम पापा से बात हुई, जानते हो वे क्या कह रहे थे…”समर ने अपूर्वा के चेहरे की तरफ ध्यान से देखा.

“तेरी मां ने कभी मुझे 1 पानी का गिलास भी नहीं उठाने दिया और आज देख मेरी क्या दशा हो रही है.आज तेरी मां की बहुत याद आ रही.इस से अच्छा होता कि मैं भी उन के साथ चला गया होता.”अपूर्वा फूटफूट कर रो पड़ी, समर की आंखें भीग गईं.”समर, मैं उन्हें इस हाल में अकेला नहीं छोड़ सकती. मैं कल उन्हें लेने जा रही.”

समर के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आईं, मां का व्यवहार देख कर वह सोच नहीं पा रहा था कि इस बात को वह किस तरीके से लेंगी. अपूर्वा समर के चेहरे को देख कर उस की मनोस्थिति को समझ गई थी. वह जानती थी कि मम्मीजी को मनाना इतना आसान नहीं था पर निर्णय तो लेना ही था. आखिर पापा को यों अकेले नहीं छोड़ सकती थी.

“समर, आप यहां संभाल लेना, मैं ने ड्राइंगरूम के बगल वाला कमरा ठीक कर दिया है. पापा अब वहीं रहेंगे.” “और मां?”

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