सत्यव्रत उसे देखदेख कर निहाल होते रहते थे. पड़ोसियों में बखान करते और दोस्तों से तारीफ करते न अघाते. सुशांत से तुलना कर के वह प्रशांत को नीचा दिखाते रहते. सुशांत प्रशांत से सिर्फ 1 साल ही छोटा था. पर दोनों एक ही कक्षा में थे. दोनों ने एकसाथ ही मेडिकल में दाखिले के लिए तैयारियां की थीं और साथ ही परीक्षाएं दी थीं. नतीजा निकला तो प्रशांत असफल था और सुशांत सफल. सुशांत आगे की पढ़ाई के लिए मुजफ्फरपुर रवाना हो गया. प्रशांत अपनी असफलता के साथसाथ पिता के व्यंग्य बाणों से घायल अपने कमरे में बंद हो गया.
प्रभावती चीख कर बोली थीं, ‘इसीलिए तो कहा था, इसे जो राह पसंद है उसी पर चलने दो. जिस पढ़ाईर् में इस की रुचि नहीं है उस में धक्के दे कर मत चलाओ.’
‘इस की अपनी कोई राह नहीं है. मेहनत से जी चुराने की सजा इस ने पाईर् है. पूरे समाज में इस ने मेरी नाक कटवा दी है. तुम्हें कुछ पता है कि क्या करेगा यह आगे? कलम घिसेगा कलम, बस.’
‘कौन जानता है, कलम घिसते- घिसते यह कहां से कहां पहुंच जाए. सुशांत ने अगर तुम्हारी डाक्टरी की लाइन पकड़ ही ली है तो क्या हुआ. प्रशांत भी मनचाहे क्षेत्र में कहीं ज्यादा सफल हो. तुम साहित्यकारों, कवियों के महत्त्व को नकारते क्यों हो?’
ऐसी बहसों से सत्यव्रत प्रभावती की ओर से बेटे को मिलने वाली तरफदारी समझते. वह कहते, ‘मैं उसे राह दिखाता हूं तो तुम्हें बुरा लगता है. क्या मेरा बेटा नहीं है वह? किसी भी पौधे के विकास के लिए उस की काटछांट जरूरी है. वही काम मैं भी कर रहा हूं.’