शाम गहरा रही थी. सर्दी बढ़ रही थी. पर मधुप बाहर कुरसी पर बैठे शून्य में टकटकी लगाए न जाने क्या सोच रहे थे. सूरज डूबने को था. डूबते सूरज की रक्तिम रश्मियों की लालिमा में रंगे बादलों के छितरे हुए टुकड़े नीले आकाश में तैर रहे थे. उन की स्मृति में भी अच्छीबुरी यादों के टुकड़े कुछ इसी प्रकार तैर रहे थे.
2 दिन पहले ही वे रिटायर हुए थे. 35 सालों की आपाधापी व भागदौड़ के बाद का आराम या विराम… पता नहीं…
‘‘पर, अब… अब क्या…’’ विदाई समारोह के बाद घर आते हुए वे यही सोच रहे थे. जीवन की धारा अब रास्ता बदल कर जिस रास्ते पर बहने वाली थी, उस में वे अकेले कैसे तैरेंगे.
‘‘साब सर्दी बढ़ रही है… अंदर चलिए,’’ बिरूवा कह रहा था.
‘‘हूं…’’ अपनेआप में खोए मधुप चौंक गए.
‘‘हां… चलो,’’ कह कर वे उठ खड़े हुए.
‘‘इस वर्ष सर्दी बहुत हो रही है साब…’’ बिरूवा कुरसी उठा कर उन के साथ चलते हुए बोला, ‘‘ओस भी बहुत पड़ रही है. सुबह सब भीगाभीगा रहता है, जैसे रातभर बारिश हुई हो,’’ बिरूवा लगातार बोलता जा रहा था.
मधुप अंदर आ गए. बिरूवा उन के अकेलेपन का साथी था. अकेलेपन का श्राप उन्हें मिला था, पर भुगता बिरूवा ने भी था.
खाली घर में बिरूवा कई बार अकेला ही बातें करता रहता. उन की जरूरत से अधिक चुप रहने की आदत थी. उन की तरफ से कोई प्रतिक्रिया न पा कर बड़बड़ाया हुआ वह स्वयं ही खिसिया कर चुप हो जाता.
पर, श्यामला खिसिया कर चुप न होती थी, बल्कि झल्ला जाती थी, ‘‘मैं क्या दीवारों से बातें कर रही हूं. हूं, हां भी नहीं बोल पाते. चेहरे पर कोई भाव ही नहीं रहते, किस से बातें करूं,’’ कह कर कभीकभी उस की आंखों में आंसू आ जाते.
मधुप की आवश्यकता से अधिक चुप रहने की आदत श्यामला के लिए इस कदर परेशानी का सबब बन गई थी कि वह दुखी हो जाती थी. उन की संवेदनहीनता, स्पंदनहीनता की ठंडक, बर्फ की तरह उस के संपूर्ण व्यक्तित्व को झुुलसा रही थी. नाराजगी में तो मधुप और भी अभेद हो जाते थे. मधुप ने कमरे में आ कर टीवी चला दिया. तभी बिरूवा गरम सूप ले कर आ गया, ‘‘साब सूप पी लीजिए.’’
बिरूवा के हाथ से ले कर वे सूप पीने लगे. बिरूवा भी वहीं जमीन पर बैठ गया. कुछ बोलने के लिए वह हिम्मत जुटा रहा था, फिर किसी तरह बोला, ‘‘साब घर वाले बहुत बुला रहे हैं. कहते हैं, अब घर में आराम करो, बहुत कर लिया कामधाम, दोनों बेटे कमाने लगे हैं. अब जरूरत ना है काम करने की…’’
मधुप कुछ बोल न पाए, छन्न से दिल के अंदर कुछ टूट कर बिखर गया. बिरूवा का भी कोई है, जो उसे बुला रहा है. 2 बेटे हैं जो उसे आराम देना चाहते हैं. उस के बुढ़ापे की और असशक्त होती उम्र की फिक्र है उन्हें… लेकिन सबकुछ होते हुए भी यह सुख उन के नसीब में नहीं है.
बिरूवा के बिना रहने की वे कल्पना भी नहीं कर पाते. अकेले में इस घर व दीवारों से भी उन्हें डर लगता है, जैसे कोनों से बहुत सारे साए निकल कर उन्हें निगल जाएंगे. उन्हें अपनी यादों से भी डर लगता है और अकेले में यादें बहुत सताती हैं.
‘‘सारा दिन आप व्यस्त रहते हैं, रात को भी देर से आते हैं, मैं सारा दिन अकेले घर में बोर हो जाती हूं,’’ श्यामला कहती थी.
‘‘तो और औरतें क्या करती हैं? और क्या करती थीं? बोर होना तो एक बहाना भर होता है काम से भागने का. घर में सौ काम होते हैं करने को.’’
‘‘पर, घर के काम में कितना मन लगाऊं. घर के काम तो मैं कर ही लेती हूं. आप कहो तो बच्चों के स्कूल में एप्लीकेशन दे दूं नौकरी के लिए, कुछ ही घंटों की तो बात होती है, दोपहर में बच्चों के साथ घर आ जाया करूंगी,’’ श्यामला ने अनुनय किया.
‘‘कोई जरूरत नहीं है. कोई कमी है तुम्हें?’’ अपना निर्णय सुना कर जो मधुप चुप हुए तो कुछ नहीं बोले. उन से कुछ बोलना या उन को मनाना टेढ़ी खीर था. हार कर श्यामला चुप हो गई. जबरदस्ती भी करे तो किस के साथ, और मनाए भी तो किस को…
‘‘नोवल्टी में अच्छी पिक्चर लगी है, चलिए न किसी दिन देख आएं. कहीं भी तो नहीं जाते हैं हम…’’
‘‘मुझे टाइम नहीं… और वैसे भी 3 घंटे हाल में मैं नहीं बैठ सकता.”
‘‘तो फिर आप कहें तो मैं किसी सहेली के साथ हो आऊं.’’
‘‘कोई जरूरत नहीं भीड़ में जाने की, सीडी ला कर घर पर देख लो.’’
‘‘सीडी में हाल जैसा मजा कहां आता है.’’
लेकिन अपना निर्णय सुना कर चुप्पी साधने की उन की आदत थी. श्यामला थोड़ी देर बोलती रही, फिर चुप हो गई. तब नहीं सोच पाते थे मधुप कि पौधे को भी पल्लवित होने के लिए धूप, छांव, पानी व हवा सभी चीजों की जरूरत होती है. किसी एक चीज के न होने पर भी पौधा मर जाता है. दफिर श्यामला तो इनसान थी. उसे भी खुश रहने के लिए हर तरह के मानवीय भावों की जरूरत थी, वह उन का एक ही रूप देखती थी. आखिर कैसे खुश रह पाती वह.
‘‘थोड़े दिन पूना हो आऊं मां के पास. भैयाभाभी भी आए हैं आजकल. उन से भी मुलाकात हो जाएगी.’’
‘‘कैसे जाओगी इस समय?’’ मधुप आश्चर्य से कहते और पूछते, ‘‘किस के साथ जाओगी?’’
‘‘अरे, अकेले जाने में क्या हुआ… 2 बच्चों के साथ सभी जाते हैं.’’
‘‘जो जाते हैं, उन्हें जाने दो. पर, मैं तुम लोगों को अकेले नहीं भेज सकता.’’
फिर श्यामला लाख तर्क करती, मिन्नतें करती, पर मधुप के मुंह पर जैसे टेप लग जाता.
ऐसी अनेकों बातों से शायद श्यामला का अंतर्मन विरोध करता रहा होगा. पहली बार विरोध की चिनगारी कब सुलगी और अब भड़की, याद नहीं पड़ता मधुप को.
‘‘साब खाना लगा दूं,’’ बिरूवा कह रहा था.
‘‘भूख नहीं है बिरूवा, अभी तो सूप लिया है.’’
‘‘थोड़ा सा खा लीजिए साब, आप रात का खाना अकसर छोड़ने लगे हैं.”
‘‘ठीक है, थोड़ा सा यहीं ला दे,’’ मधुप बाथरूम से हाथ धो कर बैठ गए.
इस एकरस दिनचर्या से वे 2 दिन में ही घबरा गए थे, तो श्यामला कैसे बिताती पूरी जिंदगी. वे बिलकुल भी शौकीन तबीयत के नहीं थे. न उन्हें संगीत का शौक था, न किताबें पढ़ने का, न पिक्चरों का, न घूमने का. न बातें करने का.
श्यामला की जीवंतता, मधुप की निर्जीवता से अकसर घबरा जाती. कई बार चिढ़ कर वह कहती, ‘‘ठूंठ के साथ आखिर कैसे जिंदगी बिताई जा सकती है.’’
‘‘काश, तभी संभाल लिया होता सबकुछ.’’
श्यामला के जीवन में स्पंदन था, संवेदनाएं थीं, भावनाएं थीं और वे…? श्यामला कहती, ‘‘आप को सिर्फ अपनेआप से प्यार है, मैं और बच्चे तो आप के लिए जीवनयापन करने के यंत्र भर हैं.’’