कहानी के बाकी भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

राइटर- रमेश चंद्र सिंह

‘पापा के आने के बाद हम लखनऊ पहुंचे. दीदी व जीजाजी मु झे तयशुदा लेडी डाक्टर के पास ले कर गईं. लेडी डाक्टर ने मेरा एग्जामिनेशन किया तो बोली, ‘अब बहुत देर हो गई है. बच्चा अब 4 माह का हो गया है. अबौर्शन कराना काफी रिस्की है. आप लोग फिर विचार कर लें. अगर आप चाहेंगे तो आप के रिस्क पर और लिखित ले कर ही मैं कोशिश करूंगी, किंतु किसी तरह के नुकसान की कोई गांरटी न लूंगी. जरूरत पड़ने पर औपरेशन भी करना पड़ सकता है.’ जीजाजी ने कहा, ‘आजभर हमें फिर विचार कर लेना चाहिए.’

‘दीदी बोलीं, ‘क्या विचार करना है. बच्चे को तो हम जन्म दे नहीं सकते.’

‘दीदी, जब अबौर्शन इतना रिस्की है तो मैं बच्चे को जन्म दूंगी, किसी अनाथालय में डाल दूंगी. यह तो हत्या होगी न, दीदी.’

‘पागल हो गई हो क्या. बच्चे में जाने किस का खून है. जोरजबरदस्ती वाले बच्चे कभी सही न होंगे. बच्चे में गुंडे का ही तो संस्कार आएगा.’

‘किंतु हमें बच्चे को साथ कहां रखना है. अनाथालय को ही देना है. फिर दीदी, क्या आप भी इस धारणा को मानती हैं कि सहवास के समय आंखें बंद कर लेने से बच्चा अंधा पैदा होगा.’

‘यह समय तर्कवितर्क का नहीं है, शैली. किसी के जीवन का है. किंतु अभी घर चलते हैं. वहां इस समस्या के समाधान का कोई रास्ता तलाशते हैं.’

‘हम लोग घर आ गए.

‘जीजाजी दीदी से बोले, ‘एक उपाय है. क्यों न हम इस बच्चे को खुद अपना लें. अब इतने बड़े भ्रूण को मारना हत्या ही तो होगी.’

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...