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राइटर- रमेश चंद्र सिंह

‘‘मां, मैं पापा के बारे में कभी न पूछूंगी. मैं तुम्हारे पुराने जख्मों को कभी न कुरेदूंगी,’’ अचानक मेरे मुंह से निकला था.

उस दिन मैं फूटफूट कर रोई थी.  मदन ने पूछा था, ‘पीहर की याद अब भी आ रही है क्या. शायद मेरे प्यार में कुछ कमी रह गई है?’ अब मैं उसे कैसे बताऊं कि आज मैं कितनी खुश हूं. ये आंसू मांबाबूजी से बिछुड़ने के नहीं, बल्कि खुशी के हैं जो मां को पा कर पूरे वेग से छलक पड़े हैं. हां, मां को, जिसे अब तक मैं मां सम झ रही थी वह मेरी मौसी थी. असली मां तो वह है जिसे मैं मौसी सम झ रही थी.

मेरी शादी हुए एक हफ्ता गुजर गया था. मदन ने मु झे इतना प्यार दिया कि मैं मायके की याद भूल गई. सासुमां ने मु झे मां जैसा स्नेह दिया. ननद और देवर ने मु झे कभी अकेले न छोड़ा. हर वक्त साया बन कर साथ लगे रहे. ननद हर वक्त मेरे नाश्ते, खाने का ध्यान रखती. देवरजी हमेशा कोई न कोई चुटकुला सुना कर हंसाते. ऐसी ससुराल पा कर मैं निहाल हो गई थी.

मैं ने कहा, ‘‘नहीं मदन, तुम्हारे प्यार में कोई कमी नहीं.’’

‘‘कोई बात नहीं, यह नैचुरल है. जिन परिजनों के बीच 25 वर्ष गुजारे हों उन की याद तो आएगी ही.’’

फिर मदन अपने किसी दोस्त से मिलने चला गया था. मैं ने उसे कुछ बताया भी नहीं. मां ने मना किया था. पत्र के अंत में लिखा था, ‘बेटी, यह राज, राज ही रहने देना. राज जिस दिन खुलेगा, तुम्हारी मां का दांपत्य जीवन बरबाद हो जाएगा.’

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