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‘‘अजमल भाई, आदाब अर्ज. मेरा यह पत्र पा कर आप अवश्य ही चौंकेंगे. इतना लंबा पत्र मैं ने पहले कभी नहीं लिखा आप को. इस के अलावा यह कि इस पत्र में जो कुछ लिख रही हूं, इस संबंध में पहले कभी कोई चर्चा मेरे और आप के बीच में नहीं चली परंतु जिंदगी में कुछ लमहे ऐसे अवश्य आते हैं जब मन होता है कि अपने अंदर जो कुछ है, वह सब किसी के सामने खोल कर रख दें.  ‘‘मेरी जिंदगी में भी वह लमहा आ गया है जब मैं अपने अंदर की सारी बातें कह देना चाहती हूं. इस का एक कारण यह भी है कि मैं भविष्य में जो कुछ करने जा रही हूं, उस का औचित्य कम से कम उस व्यक्ति के समक्ष रख दूं जिसे मैं बहुत आदर और सम्मान की दृष्टि से देखती हूं और चाहती हूं कि उस व्यक्ति के मन में मेरे द्वारा उठाए गए कदम को ले कर कोई गलतफहमी न रहे.’’ सूफी का पत्र पढ़ते हुए मैं चिंतित हो उठा.

कितनी ही आशंकाएं मन में उभरने लगीं. मेरे स्थान पर सूफी से परिचित कोई भी व्यक्ति होता तो वह भी आशंकित हुए बिना न रहता. लगभग 30 वर्ष की आयु को पहुंचने तक कोई सुंदर और सुशिक्षित लड़की, जिस का हाथ थामने के लिए एकदो नहीं, बीसियों लड़के चक्कर काटते रहे, जिस के लिए शहर के संपन्न और सभ्य परिवारों से रिश्ते की मांग की जाए, यदि कुंआरी बैठी रहे, मांबाप चाहते हुए भी उस की शादी नहीं कर पाएं तो उस लड़की का जीवन कितना दुखमय बन जाएगा, इस की कल्पना सहज ही की जा सकती है. और फिर वह लड़की यदि इस प्रकार का पत्र लिखे तो आशंका होती है कि कहीं वह नींद की गोलियां अधिक मात्रा में ले कर आत्महत्या करने तो नहीं जा रही. उस के पत्र पर मेरी नजरें शीघ्रता से फिसलने लगीं. ‘‘आप भलीभांति जानते हैं कि मेरी शादी को ले कर अब्बा, अम्मा और भाईजान बेहद चिंतित हैं और उन की यह चिंता आज से नहीं, 8-10 वर्षों से कायम है.’’

सूफी के इन शब्दों में छिपी व्यंग्य की तीव्रता को केवल वही व्यक्ति अनुभव कर सकता है जो उस के परिवार के इन तीनों सदस्यों से पूरी तरह परिचित हो. मैं सूफी के पिता साजिद चाचा से भी अच्छी तरह परिचित हूं और उस की मां से भी. उस का भाई वाजिद मेरे साथ ही कालेज में पढ़ा है. हम दोनों ने कई वर्ष एक ही परिवार के सदस्यों की भांति गुजारे हैं और सूफी के लिए वर ढूंढ़ने में ये तीनों जिस प्रकार प्रयत्नशील रहे हैं, उस से भी मैं किसी हद तक परिचित हूं. साजिद चाचा शहर के जानेमाने नेता हैं. एक प्रकार से उन के नाम का सिक्का चलता है शहर में. जितने भी प्रकार के सरकारी, अर्धसरकारी, गैरसरकारी महकमे हैं, सब के निम्न कर्मचारी से ले कर उच्च अधिकारी तक उन के नाम का लोहा मानते हैं. चाहे जिस महकमे के अधिकारी की छुट्टी करवा दें, जिसे चाहें कुरसी पर चिपका दें. प्रदेश और देश की राजधानी उन के लिए घरआंगन है. जनसेवा उन के जीवन का एकमात्र लक्ष्य है और इस ‘जन’ की परिधि में सर्वप्रथम वे अपने परिवारजनों को सम्मिलित करते हैं. सो, जो भी कार्य करते हैं अपने परिवार के लोगों के संपूर्ण हितों को सर्वोपरि मान कर करते हैं.

वे नेता वर्ग को जनता का सर्वश्रेष्ठ हितैषी मानते हैं. अन्य वर्गों के लोगों को निम्न श्रेणी में रखते हैं.  सूफी के लिए योग्य वर का चयन  करते समय साजिद चाचा अपने   इसी दृष्टिकोण को समक्ष रखते हैं और ऐसा वर चाहते हैं जो पूर्णरूप से एक सफल नेता हो या ऐसा अभिनेता हो जिस में नेता बनने के सभी गुण विद्यमान हों. आज के युग में ऐसे युवकों की कोई कमी भी नहीं है. कालेजों में छात्रसंघों के नेता, कार्यालयों में कर्मचारी संघों के नेता, कारखानों में मजदूर संघों के नेता और महल्लों में महल्ला सुधार समितियों के नेता युवावर्ग से ही उभर रहे हैं. परंतु जब भी साजिद चाचा ने सूफी के लिए किसी ऐसे ही प्रतिभाशाली युवा नेता का चयन किया है, तब उसे सूफी की मां या भाई ने कोई न कोई तर्क दे कर नापसंद कर दिया है. हां, सूफी के घर की तीनों महाशक्तियों को यह अधिकार या वीटो पावर प्राप्त है और वास्तविकता यह है कि इन्हीं तीनों के कारण आज तक वह कुंआरी बैठी है.

अपने विचारों को बीच में ही छोड़ कर मैं फिर पत्र पढ़ने लगा. ‘‘इन 8-10 वर्षों की लंबी अवधि में एकदो नहीं, बीसियों रिश्ते आए हैं. अभी कुछ माह पहले ही सुलतानपुर से बड़े मामूजान ने डा. तनवीर को घर भेजा था. इस से पूर्व मामूजान का पत्र आया था जिस में डा. तनवीर के संबंध में पूरी जानकारी थी. यह नेत्र विशेषज्ञ के रूप में एक वर्ष पूर्व ही सरकारी नौकरी में आए थे. इन के पिता पास के एक जिले के जिलाधीश थे. घर में मां के अतिरिक्त केवल एक छोटा भाई था. अच्छा संपन्न और सभ्य परिवार था इन का. ‘‘मामूजान का खत पा कर घर में सब को डा. तनवीर का इंतजार था. वे निर्धारित तिथि पर हम लोगों से मिलने आए. खाने की मेज पर सब से मुलाकात हुई. अम्मा और भाईजान उन्हें देख कर बहुत खुश हुए, लेकिन अब्बा को जब पता चला कि डा. तनवीर को राजनीति से कोई सरोकार नहीं रहा है तो वे एकदम उदास हो गए. अपनी पढ़ाई के दिनों में उन्होंने छात्रसंघ की गतिविधियों से खुद को अलग ही रखा था. ऐसा कर के ही वे विश्वविद्यालय में सब से ज्यादा अंक ला सके थे.

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