‘पढ़ने दो उसे, अभय,’ मीना ने सम झाया था, ‘कई लोग खातेखाते पढ़ते भी हैं. पतिपत्नी की अपनीअपनी एक सीमा भी होती है. एकदूसरे के शौक और स्वाद में दखल नहीं देना चाहिए. पति पत्नी का मालिक नहीं होता.’
मां के सम झाने पर अभय सहज हो गया था लेकिन दीपा अवाक् सी मीना का चेहरा देखने लगी थी.
‘पढ़ो बेटा, और साथसाथ खाते भी जाओ न. तुम तो खा ही नहीं रही हो. अभय ने शायद इसीलिए टोका था.’
‘जी...वो...बस, एक ही रचना. रवि सहायजी की रचना तो मैं भूखे पेट भी छोड़ नहीं सकती. बस, इसे पहले पढ़ लूं.’
क्षण भर को हम तीनों की आंखें मिलीं और अभय खिलखिला कर हंसने लगा.
‘रवि सहाय का लिखा भूखे पेट भी छोड़ नहीं सकती. क्या इतना अच्छा लिखते हैं वे?’
‘हां, बहुत अच्छा लिखते हैं.’
असीम संतोष का भाव था दीपा के चेहरे पर. मग्न थी वह पढ़ने में और अभय के अगले प्रश्न को उस ने हाथ के इशारे से नकार भी दिया था.
‘बाद में बात करते हैं.’
चुप हो गए थे हम सब. 10 मिनट बाद उस ने सरिता एक तरफ रख दी और नाश्ता करने लगी. मीना और अभय मेरी ओर देख कर मुसकरा रहे थे. सहसा अभय पूछने लगा :
‘कब से पढ़ रही हो रवि सहाय को?’
‘पिछले 10-12 साल से.’
‘कभी मिली हो उन से?’
‘नहीं, कभी मौका नहीं मिला.’
‘मिलना चाहोगी, कहो तो तुम्हें अभी मिला दूं.’
चुप हो गई थी दीपा. ऐसा लगा कि उसे अभय का सवालजवाब करना अच्छा नहीं लग रहा था. शायद उसे लग रहा था कि उस का पति उस की भावनाओं का मजाक उड़ा रहा है.
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