‘‘पा पा, क्या आप को नहीं लगता है कि बच्चों पर हर पल दोषारोपण करना आज का फैशन हो गया है. हर मातापिता शायद यह भी अपना दायित्व ही सम झने लग गए हैं कि उठतेबैठते बच्चों के मन में यह भावना भरते रहो कि मांबाप बेचारे बन कर रह गए हैं, बच्चे परवा नहीं करते, बच्चे संवेदनहीन हो गए हैं, बच्चों को मांबाप की ंिचंता नहीं है…’’
अभय मेरे सामने खड़ा हो कर कहने लगा तो क्षण भर को मेरे हाथ काम करतेकरते रुक से गए. मैं चौंक सा गया कि क्या कह रहा है अभय.
‘‘क्या करें बच्चे जो मांबाप को लगे कि वे उन की परवा करते हैं. क्या गोद में उठा कर झूला झुलाएं?’’
अभय गुस्से में है ऐसा उस के चेहरे से नहीं लग रहा था, फिर भी शब्दों में एक ताप, एक रोष नजर आया मुझे.
‘‘क्या हुआ, बेटा? मैं कुछ सम झा नहीं. क्या तुम्हारी मां या मैं ने कुछ कह दिया?’’
चुप रहा अभय. उस की आंखों में मेरे शब्दों से नमी चली आई थी. जहां तक मु झे याद है हम दोनों पतिपत्नी अभय और उस की पत्नी के जीवन में जरा सा भी हस्तक्षेप नहीं करते. वे जो चाहे करें, जो पसंद न आए न करें. बच्चे तो हैं नहीं वे दोनों, एम.बी.ए. हैं, अच्छी कंपनी में जिम्मेदारी के पद पर काम करते हैं. सुबह 9 के गए रात 9 बजे घर लौट कर आते हैं. इन दोनों के पास अपने लिए ही समय नहीं है जो जरा सा आराम कर पाएं. फिर हमारे साथ लाड़प्यार करने का समय कहां से ला सकते हैं. शनिवाररविवार को छुट्टी होती है. उन दिनों दोनों 12-1 बजे तक सोते हैं, हफ्ते भर की तैयारी करते हैं या कहीं घूमने चले जाते हैं. किसी मित्र के घर या किसी रेस्तरां में खाना खाने. कभी हम भी उन के साथ चले जाते हैं पर अकसर नहीं ही जाते क्योंकि बच्चों के साथ हर जगह जाना हमें भी अच्छा नहीं लगता. ऐसा क्या हो गया जो अभय मन की भड़ास निकालने लगा.
‘‘इधर आओ, मेरे पास,’’ मैं ने हाथ बढ़ा कर उसे पास बुलाया. मेरी पत्नी मीना और बहू दीपा भी सामने चली आईं. दीपा परेशान लग रही थी और मीना भी चुप सी.
‘‘सासबहू में कोई झगड़ा हो गया है क्या?’’
दोनों पास आ कर खड़ी हो गईं. अभय भी उसी तरह धीरेधीरे चलता हुआ मेरे पास आया जैसे बचपन में बुलाने पर आया करता था या जब कोई समस्या होती थी. लगता है आज भी कुछ कहना ही चाहता है. क्या कहना चाहता होगा, जरा देखूं तो.
‘‘दीपा, क्या हुआ है? किस बात पर अभय नाराज हो रहा है. कहीं मां ने बेटे को तुम्हारे खिलाफ भड़का तो नहीं दिया…यदि ऐसा है तो तुम मेरे साथ आ जाओ…हम मिल कर इन का मुकाबला कर लेंगे…बेटा, क्या हो गया…जरा सम झाओ न मु झे.’’
रोने लगी दीपा. अभय बारीबारी से हमारा चेहरा पढ़ता रहा. माथे पर पड़े बल और भी गहरे होने लगे. जैसे मन में हजारों तूफान उमड़ रहे हों.
आननफानन में अखबार फेंक कर मैं दीपा की ओर लपका. सिर पर हाथ रख कर कुछ पूछता इस से पहले वह मेरी छाती से लग फूटफूट कर रोने लगी. मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्या हो गया. मीना को देखा मैं ने, वह चुप थी, उसे शायद कुछ पता है या नहीं, कुछ भी सम झ में न आने वाला भाव उस के चेहरे पर नजर आ रहा था.
‘‘हम दोनों क्या आप की परवा नहीं करते हैं?’’
‘‘परवा से तुम्हारा क्या मतलब है? अभी तो हमारे हाथपैर चलते हैं. अपनी परवा हम खुद ही कर सकते हैं. हम तो तुम दोनों की भी परवा कर रहे हैं, तुम्हारा घर संभालते हैं. हमें अभी परवा की जरूरत ही नहीं पड़ी बेटा…और जिस दिन वह पल आएगा, परवा करने को पड़ोसी तो आएंगे नहीं, तुम दोनोें ही करोगे…क्या हुआ है जिस पर नाराज हो? मीना, क्या हुआ है?’’ पत्नी की ओर देखते हुए मैं ने कहा, ‘‘क्या तुम ने कुछ कह दिया?’’
‘‘नहीं तो, मैं भी परेशान हूं कि हमारे बीच तो ऐसी कोई बात नहीं हुई. 2 दिन से दीपा चुपचुप सी है…अभय भी चुप है. अभी मैं ने चुप होने का कारण पूछा तो अभय उबल पड़ा.’’
क्या हो गया है इन दोनों को. हमारे संबंध बड़े दोस्ताना हैं. बच्चों से हम हर बात खुल कर कर लेते हैं. मीना तो वैसे भी हर पल हंसतीखिलखिलाती रहती है. किसी भी समस्या का हल वह चुटकी में निकाल लेती है. पड़ोसी के घर की समस्या हो या किसी मित्र अथवा रिश्तेदार की, बड़ी आसानी से माहौल को हलकाफुलका बना कर समस्या को हवा में उड़ा देना मीना के बाएं हाथ का काम है.