‘‘साफसाफ बात करो अभय, गोलमोल बातें न तो मैं करती हूं और न ही मेरे पल्ले पड़ती हैं. मैं ने शुरू में ही सम झा दिया था तुम दोनों को कि हम साथसाथ तभी खुशी से रह पाएंगे जब हम में हर बात खुली और साफ होगी. बिना वजह चुप हो जाना न मु झे आता है और न किसी की चुप्पी मेरी सम झ में आती है.’’
‘‘आप ने मौसी से कहा कि हम दोनों आप की जरा भी परवा नहीं करते. सारा दिन आप घर में कैद रहते हैं. कोई पूछने वाला नहीं आप को. क्या आप हमारे साथ रह कर खुश नहीं हैं?’’
सुन कर अवाक् रह गया मैं. मौसी से कहा, मतलब मीना की उस बहन से कहा जिस का चरित्र आज तक मेरी सम झ में नहीं आया. वह बहन जो जहां से निकल भर जाती है वहीं कलह के बीज रोपती जाती है. मीना से उस बहन की कभी नहीं बनी. एक ही मां की 2 बेटियां और दोनों के स्वभाव में जमीनआसमान का अंतर.
‘‘लता से मैं ने ऐसा कहा?’’ सुन कर मीना हैरान रह गई. हैरान तो मीना को होना ही था.
‘‘अभय बेटा, अभी मेरा दिमाग इतना खराब नहीं हुआ जो अपना दुखड़ा रोने मैं लता के पास जाऊं. जो औरत अपना घर नहीं संभाल पाई वह मेरे घर का फैसला क्या करेगी. सच तो यह है कि मैं तो उस से मिली ही नहीं हूं.’’
‘‘आप ने उन्हें मोबाइल पर फोन किया था?’’
‘‘मु झे तो मोबाइल इस्तेमाल करना आता ही नहीं. दीपा, तुम्हें तो पहले से ही पता है कि मु झे मोबाइल पर बात करना ही नहीं आता. कभी तुम्हीं मिलाती हो तो हालचाल तुम्हारे सामने ही पूछती हूं और फिर लता से मेरा इतना प्यार कहां है, जो उस के साथ मैं दिल की बात करूं और ऐसी कोई बात हमारे दिलों में है ही नहीं. हम कोई कैदी हैं क्या. तुम्हारे पापा और मैं जब जहां चाहें घूमने चले जाते हैं. हमें किस की रोकटोक है? तुम्हीं बताओ.’’
दीपा और अभय के चेहरे के भाव इस तरह हो गए मानो उबलते दूध में किसी ने पानी के छींटे मार दिए हों. पतिपत्नी एकदूसरे का मुंह देखने लगे.
‘‘तुम्हारे पापा की पैंशन ही हमारे लिए काफी है. हम तुम पर आश्रित होते तो भी खुद को कैदी मानते, हमें तो कोई समस्या है ही नहीं तो क्यों हम तुम्हारी शिकायत करते…और अगर करते भी तो लता के आगे जिस की अपनी बहू साल भर में अवसाद की मरीज बन कर अस्पताल पहुंच गई. अपने बेटे का घर उजाड़ने में जिस ने पूरा जोर लगा दिया वही लता मेरे घर में आग नहीं लगाएगी, इस की क्या गारंटी है.
‘‘तुम दोनों पढ़ेलिखे हो, इनसान को पहचानना सीखो. लता की बहू को अगर मैं न संभालती तो बेचारी पागल हो जाती या आत्महत्या ही कर लेती. क्या इस बात को तुम नहीं जानते हो? तुम्हारी मौसी कैसी है, क्या तुम्हें नहीं पता?’’
दीपा टुकरटुकर मेरा चेहरा देखने लगी.
‘‘मम्मी, मौसीजी उस दिन हमें मौल में मिली थीं. मैं ने अपनी और आप की साड़ी उन्हें दिखाई थी. मौसी ने रंग देखा था साड़ी का…रंग का उन्हें पता था तभी उन्होंने फोन पर मु झे बताया कि आप को क्रीम रंग की साड़ी जरा भी पसंद नहीं आई.
‘‘पापा की कमीज भी उन के सामने ही खरीदी थी न. रंग वे जानती थीं. इसीलिए हमें सुना दिया कि जीजाजी कह रहे थे कि नीला रंग उन्हें पसंद नहीं.
‘‘हम भी यही सोच रहे थे. अगर आप को रंग पसंद नहीं था तो हम बदलवा लेते, इस में मौसी को सुनाने जैसा क्या था? और मोबाइल तो सच में मम्मी को मिलाना ही नहीं आता. हमारा लैंडलाइन भी हफ्ते भर से खराब पड़ा है. आप ने बात की भी तो कैसे?’’
झेंप और शर्म के भाव चले आए अभय के भी चेहरे पर. मीना की आंखें भी भर आईं दीपा की बात पर.
‘‘बेटा, हमें तुम्हारी जरूरत है और तुम दोनों को हमारी. बुढ़ापा और ज्यादा पास आएगा तो जाहिर सी बात है, हमारे हाथपैर जवाब देंगे ही और तब हमारी देखभाल तुम्हारी मौसी नहीं करेगी, तुम्हीं करोगे. अरे, वह मौसी इतनी प्यारी कहां है मु झे, जो मैं उस से तुम्हारी शिकायत करूं.’’
दीपा की बांह पकड़ी मीना ने और उस का माथा सहला दिया.
‘‘लता पागल है, सम झते नहीं हो क्या तुम लोग. ऐसा इनसान जिस ने ससुराल, मायका हर जगह रिश्तों में सिर्फ जहर घोला, कभी किसी को किसी के साथ हंसनेबोलने नहीं दिया वह पागल नहीं तो और क्या है? हर रिश्ते को लता ने सिर्फ अपने ही फीते से नापा है. ससुराल में भी राजनीति खेली और मायके में भी. अपने घर में भी जिस ने सिर्फ आग ही लगाई, उसे तुम कितनी अक्ल का मालिक सम झते हो.
‘‘लता हमारी बहन है, सिर्फ इसलिए हम ने उसे अपने से काटा नहीं, वरना ऐसा तो नहीं कि हम उसे जानते नहीं हैं. उस की बहू, उस का बेटा उसे छोड़ कर चले गए क्योंकि यही दांवपेच वह उन दोनों के साथ खेलती थी. जिस इनसान को परपीड़ा का सुख मुंह लग जाए उसे तुम पागल नहीं तो और क्या सम झोगे. हर पल बहूबेटे को आपस में लड़ाते रहना लता का शगल था. पैसा खर्च कर के दूसरे के घर आग लगाना उस का पुराना शौक है.’’ मीना सम झा रही थी दीपा को, ‘‘ऐसा होगा एक दिन, मेरे मन में काफी समय से एक डर सा था. लता की बहू जब अपनी घुटन हम दोनों के साथ बांटने लगी थी तभी मु झे ऐसी आशंका हो गई थी कि लता हमारे बच्चों पर वार जरूर करेगी. मनुष्य अपना व्यवहार नहीं देखता कि उस ने क्याक्या किया. जो आग इनसान दूसरों के घर में लगाता है वही आग जब अपने घर में लगने लगती है तब मनुष्य उस का दोष औरों पर लगा कर अपनी आत्मग्लानि को कम करने का प्रयास करता है.’’
पिछले हफ्ते हमारी शादी को 30 साल हुए थे और बच्चे हमारे लिए तोहफे लाए थे. मीना के लिए साड़ी और मेरे लिए नीली कमीज और एक महंगा पैन.
‘‘पापा, आप इतना अच्छा लिखते हैं तो आप का पैन भी सुंदर और अच्छा होना चाहिए,’’ यह कहते हुए बहू ने बड़े सम्मान से पार्कर का महंगा पैन मेरी जेब में टांगा था.
मेरी रचनाओं से बड़ी प्रभावित है मेरी बहू, और सच कहूं तो मेरी सच्ची आलोचक और प्रशंसिका भी है दीपा. अभय की सगाई हुई तब तो इस बात का उल्लेख हम ने नहीं किया था लेकिन शादी के बाद जब उसे पता चला कि मैं पिछले 20 साल से लिख रहा हूं तब सहसा खाना खातेखाते उस के हाथ से कौर ही छूट गया था. घटना कुछ इस प्रकार घटी थी :
15-20 दिन ही हुए थे उन की शादी को. वे गोआ से घूम कर आए थे. घर आते ही मेज पर पड़ी सरिता उठा कर दीपा पन्ने पलटने लगी. नाश्ता करतेकरते वह सरिता पढ़ने में व्यस्त थी. हम तब आपस में इतने खुले हुए नहीं थे, ज्यादा जानपहचान भी नहीं थी.
‘पहले आराम से खा लो, दीपा, सरिता कहीं भागी तो नहीं जा रही.’
अभय ने उस के हाथ से किताब छीनने का प्रयास किया था जिस पर एक तीखी प्रतिक्रिया की थी दीपा ने. हमें वह पतिपत्नी की सहज नोक झोंक नहीं लगी थी.
‘मेरे हाथ से कोई किताब मत छीनना, बहुत बुरा लगता है मुझे.’
क्षण भर को अभय के चेहरे पर शायद झेंप जाने के भाव उभर आए थे जिस पर उस ने हमारी ओर देखा था. नईनई पत्नी और उस का आदेशात्मक स्वर.