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स्कूल के रजिस्टर में तो उस का नाम अब्दुल लिखा था, पर हम सभी उसे पप्पू ही कह कर बुलाया करते. पप्पू और मैं 8वीं कक्षा के सहपाठी थे. स्कूल चलने के लिए कभी मैं उस के यहां पहुंच जाता और कभी वह मुझे लेने मेरे यहां आ जाता, जो भी पहले तैयार हो चुका होता.

हमारे घर ‘नए महल्ले’ में पासपास ही थे. यह महल्ला कहलाता तो नया महल्ला था, पर अधिकांश घर पुराने और खपरैल के छप्पर वाले थे. सिर्फ पप्पू का मकान ही ऐसा था, जो पूरे महल्ले में अलग दिखता. दोमंजिला पक्का मकान और सामने बड़ा चौड़ा चबूतरा. मकान की बाहरी दीवारों पर गाढ़े हरे रंग का पेंट. दूर से मकान ऐसे दिखता, जैसे किसी ने हरे रंग की मखमली चादर किसी गुंबद पर ओढ़ा दी हो. नए महल्ले में 90 फीसदी आबादी मुसलमानों की थी. शायद इसीलिए शहर के लोग इस महल्ले को ‘मुसलमानी महल्ला’ कहने लगे थे. यहां सभी घरों में मुरगियों और बकरियों की भरमार थी, जिस के कारण पूरे महल्ले में एक विशेष प्रकार की गंध फैली रहती.

यहां रहने वालों को तो इस गंध का कोई एहसास नहीं होता, पर बाहर से आने वालों को वह महसूस होती. नए महल्ले से हमारे स्कूल की दूरी लगभग 4 किलोमीटर थी. घर से 2 किलोमीटर की दूरी तक तो लोगों की आवाजाही, चहलपहल दिखा करती, पर उस के बाद के 2 किलोमीटर में सन्नाटा पसरा रहता. जाते समय तो हम 30-35 मिनट में स्कूल पहुंच जाते, पर लौटते समय आराम से चलतेचलाते, रुकतेरुकाते एक घंटा लगता.

दरअसल, स्कूल से वापसी में हम पहले पुलिस लाइन और फिर जेल के सामने थोड़ा रुक कर, वहां चल रही गतिविधियों को निहारा करते. पुलिस लाइन के मैदान में उस समय सिपाहियों की परेड चल रही होती. एक लाइन में मार्च पास्ट करते सिपाहियों को देखने में बड़ा मजा आता. कभीकभी यही सिपाही दंगे रोकने के लिए अपनी रक्षा करते हुए, भीड़ पर लाठीचार्ज का अभ्यास कर रहे होते.

पुलिस लाइन से आगे बढ़ने पर जिला जेल की बिल्डिंग आ जाती. लोहे के विशाल काले रंग के दरवाजे में बनी एक छोटी सी खिड़की से सिपाही और कैदी या तो बाहर निकल रहे होते या फिर अंदर जाते दिखते. हम लोगों की उत्सुकता रहती कि जेल में बंद कोई डाकू बाहर निकले, जिसे हम देख सकें.

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